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जीव- द्रव्य | १०१
दर्शनों की जैन दर्शन के साथ काफी समानता है । क्योंकि जैन दर्शन भी तवादी तथा यथार्थवादी दर्शन है ।
केशव मिश्रकृत तर्क-भाषा
तर्कभाषा न्याय दर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । विद्वानों में अत्यन्त लोकप्रिय है । इसमें षोडश पदार्थों का विस्तृत वर्णन किया गया है । द्वादश प्रमेयों का भी विस्तार से कथन है । आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और मन का सुन्दर वर्णन किया है ।
आत्मा का स्वरूप
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न्याय सम्प्रदाय के अनुसार आत्मा आदि द्वादश पदार्थों को प्रमेय कहा गया है । प्रमेय शब्द का अर्थ है - प्रमा का विषय । संसार में प्रमा के विषय असंख्य पदार्थ हो सकते हैं फिर भी यहाँ आत्मा आदि को ही प्रमेय कहा गया । कारण यह है, कि निःश्रेयस के साधन तत्त्वज्ञान का विवेचन करने के लिए यह न्याय प्रवृत्त हुआ है । आत्मा आदि के तत्त्वज्ञान से ही निःश्रेयस की प्राप्ति हो सकती है । अतएव यहाँ पर ये ही प्रमेय हैं ।
समस्त वैदिक दर्शन आत्मा को शरीर से भिन्न और नित्य मानते हैं । वेदान्त एकात्मवाद को स्वीकार करता है । अन्य वैदिक दर्शन आत्मबहुत्व को मानते हैं । आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों में मतभेद रहा है । वैदिक दर्शनों में आत्मा का विभु परिमाण माना गया है, केवल रामानुज आचार्य अणु परिमाण मानते हैं । जैन दर्शन आत्मा का मध्यम परिमाण स्वीकार करता है । न्याय दर्शन में आत्मा दो प्रकार का बताया गया है - जीवात्मा और परमात्मा । जैन दर्शन भी मुख्य रूपेण दो भेद मानता है - संसारी और सिद्ध । वैदिक दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं । लेकिन जैन दर्शन परिणामी नित्य ।
आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकता है । शरीर आवश्यक है । वैदिक दर्शन शरीर की परिभाषा भोगायतन करते हैं । जहाँ जिस आत्मा का शरीर है, वहीं वह आत्मा सुख दुःख का अनुभव कर सकता है । जहाँ उसका शरीर नहीं, वहाँ वह सुख-दुःख का अनुभव भी नहीं कर सकता । भोग का अर्थ है - सुख एवं दुःख का साक्षात् अनुभव करना । अतः आत्मा का भोगायतन ही शरीर है ।
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