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________________ ४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अनन्त-ज्ञानी इस विकास को सही अर्थ में विकास नहीं कहते और न इसे साधना ही कहते हैं । यह विकास तो आप आज ही क्यों, इस भव में ही क्यों, इस मानव-जीवन में ही क्यों, अनन्तकाल से करते आ रहे हैं । देह में तथा पुद्गलों में तो आप अनन्तकाल से रहते आये हैं। अभी भी यदि आप देह में ही संलग्न हैं, इन्द्रियों में ही निवसित हैं और मन तक ही सीमित हैं, तो इसे विकास एवं साधना कदापि नहीं वह सकते। अध्यात्म-साधना का अभिप्राय है-शरीर, इन्द्रिय, प्राण एवं मन के द्वार को पार करके आत्मा के भव्य-भवन में निवसित होना, अपने स्वरूप में स्थिर होने का प्रयत्न करना। वस्तुतः आत्मा का विकास एवं अभ्युदय इसी में है, कि आत्मा एवं संसार के स्वरूप को अथवा स्व और पर के यथार्थ स्वरूप को समझकर अपने स्वरूप में एवं अपने स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना । व्यक्ति संसार में रहता है, अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है, परन्तु जब वह संसार के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है अथवा विश्व की विचित्रता एवं विविधता को देखकर उसके मन में विश्व को समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तब वह अध्यात्म-चिन्तन की दिशा में कदम बढ़ाता है । पर से हट कर स्व में स्थित होता है । तत्व-ज्ञान यूरोप के महान् विद्वान् मैक्समूलर ने एक बार कहा था, कि कोई व्यक्ति, जो वर्षों से इस विश्व को और इस विश्व की विचित्रताविविधता को देखता रहा है, सहसा एक क्षण के लिए ठहर जाता है, संसार पर टकटकी लगाता है, और पुकार उठता है, तुम क्या हो ? तब उसी क्षण उसके मन में तत्त्व-ज्ञान जन्म लेता है । तत्त्व-ज्ञान का उद्भव मानव-मन में उठने वाली जिज्ञासा से होता है। इसी सत्य-तथ्य को प्रकट करने के लिए कहा गया है, कि विवेक का, तत्व-ज्ञान का जनक आश्चर्य है । यदि हम भी कभी इस विराट् विश्व पर टकटकी लगाएँ, और उससे प्रश्न करें कि तुम क्या हो ? तुम्हारा स्वरूप क्या है ? तो प्रश्नकर्ता को समाधान मिलेगा। पर, सभी विचारकों और सभी जिज्ञासुओं को इस प्रश्न का उत्तर विश्व से एक-सा नहीं मिलेगा ! इसका समाधान या उत्तर तीन प्रकार का होगा १. वे लोग, जिनके लिए व्यावहारिक ज्ञान हो पर्याप्त होता है, वे बाहरी परत को ही देखते हैं, और उसकी बाहर परिलक्षित होने वाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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