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________________ | द्रव्य का स्वरूप अध्यात्म-दृष्टि व्यक्ति अनन्त-काल से अपने को देखने का प्रयत्न तो करता रहा, पर वह अपने को बाहरी तौर पर ही देखता रहा है, बाह्य पदार्थों का ही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहा है, और बाहर ही सुख-शान्ति एवं आनन्द की खोज करता रहा है। अतः वह आत्म-ज्ञान को प्रकट करने में लगभग असफल रहा, और पूर्ण सुख-शांति पाने में भी सफल न हो सका। उसने अपने अन्तर की गहराई में उतर कर अपने को देखने का और समझने का प्रयास नहीं किया, कि मैं क्या हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? मुझसे भिन्न पदार्थ का स्वरूप क्या है ? जब साधक अपने अन्दर झाँकता है, अपने स्वरूप की ओर मुड़ता है, तब उसे यह स्पष्ट अनुभूति होती है, कि मैं अपने आपको बाह्यतः जो कुछ देख-समझ रहा था, उससे सर्वथा भिन्न हैं, और फलस्वरूप वह विकास-पथ पर गति-प्रगति करता है। अध्यात्म-साधना का अर्थ है पर-निवास से हटकर स्व का स्व में अथवा आत्मा का अपने स्वरूप में निवास करना । हम दो शब्दों का प्रयोग करते हैं- 'मैं हूँ', और 'मेरा शरीर है ।' इन दोनों प्रयोगों से स्पष्ट है, कि 'मेरी सत्ता है', मेरा अस्तित्व है,और मुझ से भिन्न शरीर का अस्तित्व भी है। अभिप्राय यह कि आत्मा है, और उससे भिन्न जड़ पदार्थ भी है। परन्तु, जब तक व्यक्ति बाह्य-दृष्टि से देखता है, तब तक वह शरीर को ही अपना स्वरूप समझता है। उससे आगे बढ़ने पर वह इन्द्रियों को, प्राणों को और मन को आत्मा समझता है, और उन्हीं में निवसित होता है और उन्हीं को अपने सूख एवं विकास का कारण समझता है। वीतराग एवं [ ३ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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