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४४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
होने वाले निरन्तर परिवर्तन में सहायक है । C. R. Jain ने Key of Knowledge में लिखा है
" विश्व में ऐसा कोई दर्शन नहीं, जो पदार्थ में रहे हुए निरन्तरता के तत्त्व से अनभिज्ञ हो, फिर भी इस रहस्य एवं पहेली को हल करने में सफल नहीं हो सका । विश्व के अधिकांश दर्शन काल ( Time ) को केवल पर्यायवाची शब्द ( Synonymous) के रूप में जानते हैं, परन्तु उसके वास्तविक स्वभाव (True nature ) को समझने में वे प्रायः असफल ( Fail) रहे हैं । आज भी बहुत से विचारक एवं दर्शन तो द्रव्यों के अस्तित्व की सूचि के आधार पर काल की लम्बाई को नापते हैं, और उसे उसी रूप में जानते हैं । परन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि सिर्फ काल के कारण पदार्थ निरन्तर अपनी पर्यायों में बहता रहता है, द्रवित होता रहता है, और उसके आकार में भी परिवर्तन आता है । काल का प्रथम गुण यह है कि वह निरन्तर प्रवाह का स्रोत है, परिणमन में सहायक कारण है । इसकी दूसरी विशेषता यह है कि काल एक प्रकार की शक्ति है, जो पदार्थों में होने वाले परिवर्तन को क्रमबद्ध रखती है ।" फ्रेंच दार्शनिक बोसिन ने घोषणा की थी, 'पदार्थों में जो क्रान्ति एवं परिवर्तन आता है, उसमें काल आवश्यक तत्त्व है । काल के बिना (Without time element) वस्तुओं में परिवर्तन होना पूर्णतः असम्भव है ।' जैन दर्शन भी इस सत्य-तथ्य को स्वीकार करता है कि काल-द्रव्य केवल समय - नापने का ही साधन या माध्यम नहीं है, उसका गुण एवं स्वभाव यह है कि द्रव्य के द्रवित होने में, परिणमन होने में द्रव्य की पर्यायों के परिवर्तन में सहायक होना ।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता
वैशेषिक दर्शन अपने द्वारा मान्य नव द्रव्यों में काल को भी एक द्रव्य मानता है । उसकी मान्यता के अनुसार काल एक नित्य और व्यापक द्रव्य है । परन्तु यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है, न तर्कसंगत ही है और न अनुभवसिद्ध ही है । क्योंकि नित्य और एक होने के कारण उसमें स्वयं में अतीत, वर्तमान और अनागत त्रि-काल बोधक भेद नहीं हो सकता और तब उसके निमित्त को माध्यम मानकर अन्य द्रव्यों एवं पदार्थों में अतीतादिभेदों को कैसे नापा जा सकता है ? द्रव्य में जो परिणमन होता है, वह किसी समय में ही होता है, जो परिणमन हो चुका, वह भी किसी
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