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काल-द्रव्य
षड्-द्रव्य में काल जैन-आगम-साहित्य में लोक को षड्-द्रव्यात्मक कहा है। षड्द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल, में सम्पूर्ण लोक में स्थित समस्त पदार्थ समाविष्ट हो जाते हैं । दुनिया में, विश्व में ऐसा एक भी पदार्थ शेष नहीं रहता, जो षड्-द्रव्य से बाहर रहता हो। षड्-द्रव्यों में से काल के अतिरिक्त पाँच द्रव्यों के लिए आगमों में पंचास्तिकाय शब्द का भी प्रयोग मिलता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में और आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार में उक्त पाँच द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है । अन्य आचार्यों ने भी इनके लिए अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है। अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । पाँच द्रव्यों में धर्म, अधर्म और जीव असंख्यात प्रदेशों से युक्त द्रव्य हैं। आकाश अनन्त प्रदेशों से युक्त है। क्योंकि अलोक में जो आकाश है, वह अनन्त प्रदेशी है और लोक में स्थित आकाश असंख्यात प्रदेशी है। इसलिए आकाश को सान्त भी कहा है और अनन्त भी। पुद्गलों के स्कन्धों का आकार एक जैसा नहीं है, उनके विभिन्न प्रकार हैं। इसलिए उनमें प्रदेशों की संख्या भी एक-सी नहीं है। परन्तु इन पाँच द्रव्यों की तरह काल द्रव्य भी स्वतन्त्र है, परन्तु वह प्रदेशों के समूह रूप नहीं है। अन्य द्रव्यों की तरह काल भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है और लोक के एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु रहे हुए हैं । ये कालाणु अदृश्य (Invisible) हैं, आकार रहित हैं और निष्क्रिय (Inactive) हैं। आगमों में एवं द्रव्यसंग्रह तथा तत्त्वार्थसार आदि ग्रन्थों में एक उपमा देकर बताया है कि कालाणु रत्नों की राशि की तरह प्रत्येक आकाश प्रदेश पर रहे हुए हैं, और संख्या की दृष्टि से वे असंख्य (Count
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