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________________ ४० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्व less in nun ber) हैं । रत्नों की राशि की तरह की उपमा केवल समझाने के लिए एवं यह बताने के लिए दी है कि जिस प्रकार रत्न परस्पर एकदूसरे में नहीं मिलते, उसी प्रकार कालाणु भी एक-दूसरे में नहीं मिलते हैं । परन्तु रत्नों की तरह न तो उनका आकार ही होता है, और न उनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ही होता है । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श - उन पदार्थों में होता है, जो मूर्त हैं, आकार-प्रकार से युक्त हैं । इस प्रकार काल, प्रदेशों के समूह से रहित है । अतः उसे अस्तिकाय नहीं कहा है। आगमों में काल की परिभाषा जैन दर्शन में द्रव्य को सत् कहा है और सत् वह है- जो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और सदा स्थित भी रहता है । उत्पाद, व्यय एवं धीव्य तीनों एक ही समय में होते हैं । इस प्रकार लोक में स्थित सभी द्रव्यों के उत्पादादि रूप परिणमन में अथवा उनके पर्यायान्तर होने में जो द्रव्य सहायक होता है, उसे 'काल- द्रव्य' कहते हैं । यह स्वयं अपनी पर्यायों में परिणमन करते हुए, अन्य द्रव्यों के परिवर्तन या परिणमन में तथा उन द्रव्यों में होने वाले उत्पाद, व्यय और स्थायित्व में सहायक होता है, निमित्त बनता है, माध्यम ( Medium) बनता है और विश्व में सैकेन्ड, मिनिट, घण्टा, दिन-रात, सप्ताह, महिना, वर्ष, युग, शताब्दी आदि व्यवहार रूप काल में निमित्त बनता है । यह धर्म-अधर्म द्रव्यों की तरह लोकव्यापी एक अखण्ड द्रव्य नहीं है । क्योंकि समय-भेद की अपेक्षा से इसे प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक कालाणु के रूप में अनेक माने बिना काल का व्यवहार हो नहीं सकता । क्योंकि भारत और अमरीका में दिन-रात एवं तारीख आदि का अलग-अलग व्यवहार उन उन स्थानों के काल-भेद के कारण ही होता है । यदि काल एक अखण्ड द्रव्य होता, तो सर्वत्र सदा एकसही समय रहता और दिन-रात भी सर्वत्र एक ही समय पर होते । एक और अखण्ड द्रव्य स्वीकार करने पर काल-भेद कथमपि सम्भव नहीं हो सकता । परन्तु काल-भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । भारत में जिस समय दिन होता है, उस समय अमरीका में रात होती है और जिस समय भारत में रात होती है, तब अमरीका में सूर्य चमकता है । २२ जून को जब भारत में चौदह घण्टे का दिन और दस घण्टे की रात होती है, तब नार्वे देश के ओखलो प्रदेश में चौबीस घण्टे सूर्य की सुनहली धूप नजर आती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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