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१६२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
४. ऋजुसूत्र नय - वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र नय कहते हैं । जैसे सुख पर्याय इस समय है । परन्तु अधिकरणभूत आत्मा को गौण रूप से मानता है । बौद्ध दर्शन इसका सुन्दर उदाहरण है ।
५. शब्द नय-काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग आदि के भेद से शब्दों में अर्थभेद का प्रतिपादन करने वाले नय को शब्द नय कहते हैं | जैसे मेरु था, मेरु है और मेरु होगा । तटः तटी तटम् ।
५. समभिरूढ नय - पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को समभिरूढ नय कहते हैं । जैसे इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाचक हैं । फिर भी अर्थ में अन्तर है ।
७. एवंभूत नय - शब्दों की स्वप्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से युक्त पदार्थों को ही उनका वाच्य मानने वाला नय एवंभूत नय है । जैसे इन्दन क्रिया का अनुभव करते समय ही इन्द्र को इन्द्र शब्द का वाच्य मानता है । एवंभूत नय में उपयोग सहित किया की प्रधानता है ।
सप्तभगी
जब एक वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में प्रश्न करने पर विरोध का परिहार करके व्यस्त और समस्त, विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, तो सात प्रकार के वाक्यों का प्रयोग होता है, जो कि स्यात्कार से अंकित होते हैं । उस सप्त प्रकार के वाक्य प्रयोग को सप्तभंगी कहते हैं । वे सात भंग इस प्रकार हैं
(१) कथंचित् है:
(२) कथंचित् नहीं है ।
(३) कथंचित् है, और नहीं है ।
( ४ ) कथंचित् कहा नहीं जा सकता ।
(५) कथंचित् है, फिर भी कहा नहीं जा सकता ।
(६) कथंचित् नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता । (७) कथंचित् है, नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता ।
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