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________________ परिशिष्ट : सप्तभंगी | १६३ मूल भंग अस्ति और नास्ति दो हैं। दोनों की युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य नाम का भंग बनता है और यह भी मूल भंग में परिगणित हो जाता है । इन तीनों के असंयोगी (अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य)। द्विसंयोगी (अस्ति-नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य) और त्रिसंयोगी (अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य) बनाने से सात भंग हो जाते हैं। अतएव इसको सप्तभंगी कहा जाता है। सप्तभंगी न्याय जैन-दर्शन का एक विशिष्ट विषय बन गया है । सप्तनय और सप्त भंग को समझना परम आवश्यक है । किसी प्रश्न के उत्तर में या तो हम 'हाँ' बोलते हैं, या 'नहीं'। इसी 'हाँ' और 'नहीं' को लेकर सप्तभंगी की रचना की है। सप्तभंगी का सामान्य अर्थ है-वचन के सात प्रकारों का एक समुदाय । किसी भी पदार्थ के लिए अपेक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए सात प्रकार से वचनों का प्रयोग किया जा सकता है। वे सात वचन इस प्रकार हैं-- (२) नहीं (३) है और नहीं (.) कहा नहीं जा सकता (५) है, परन्तु कहा नहीं जा सकता (६) नहीं है, परन्तु कहा नहीं जा सकता (७) है, और नहीं, किन्तु कहा नहीं जा सकता किसी भी पदार्थ के विषय में सात प्रकार के ही प्रश्न हो सकते हैं। अतः आठ, नव और दशवाँ भंग नहीं बन सकता। सात ही भंग हैं, कम तथा अधिक नहीं । अतः यह सप्तभंगी कही जाती है । (१) घट द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है । (२) घट पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है । (३) घट क्रम विवक्षा से नित्य भी है, और अनित्य भी है। (४) घट अवक्तव्य है, अर्थात् युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य भी है। इन चार वचन प्रयोगों पर से पिछले तीन वचन और बनाए जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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