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२० / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व आधुनिक वैज्ञानिक यहाँ तक पूर्णतः एकमत हैं, कि धर्म-द्रव्य या विज्ञान द्वारा मान्य ईथर अभौतिक, अपारमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड, अरूप,
आकाश के समान व्याप्त, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है--Thus it is proved that science and Jain Thysics agree absolutely so far as they call Dharm (Ether) non-material, nonatomic, non-discreet, Continuous, Co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for mction and one which does not it-self move."
इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि जीव और पुद्गल (Matter), जो गतिशील हैं, उनकी गति में सहायक द्रव्य अवश्य है । जिस प्रकार सभी द्रव्यों को स्थान या अवकाश देने वाला आकाश द्रव्य है, उसी प्रकार गति का माध्यम भी एक द्रव्य है। उसे जैन आगमों में धर्मद्रव्य कहा है, और वैज्ञानिक उसे ईथर (Ether) कहते हैं। ईथर या धर्मद्रव्य के अभाव में कोई भी पदार्थ-भले ही वह जड़ हो या चेतन, गति नहीं कर सकता । गति लोक में ही होती है। लोक के बाहर बड़-चेतन कोई पदार्थ है ही नहीं, इसलिए वहाँ गति का सवाल नहीं उठता। वहाँ तो केवल शुद्ध आकाश (Pure space) है। इसलिए धर्म-द्रव्य लोकव्यापी है,
और असंख्यात प्रदेशों से युक्त है। लोक-आकाश के एक-एक प्रदेश पर धर्मद्रव्य रहा हुआ है, परन्तु वह स्वयं निष्क्रिय है । पर, यह सत्य है, कि उसकी पर्यायों का अपने स्वरूप में परिणमन होता है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सत् है। सत् वह है-जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युगपत् रहते हैं, अथवा जो अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए भी अपनी पर्यायों में परिणत होता रहता है, द्रवित होता रहता है।
अधर्म द्रव्य
प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती ने पंचास्तिकायसार के दार्शनिक परिचय में पृ. २६-२७ पर लिखा है- “जैन-विचारक प्रसग के अनुरूप यह प्रश्न करते हैं, कि अणु-परमाण (Atoms) एक साथ मिलकर संसार में, लोक (Universe) में ही महास्कन्ध का निर्माण क्यों करते हैं ? वे महास्कन्ध से हटकर या बिखरकर अनन्त आकाश (Infinite space) अथवा अलोक-आकाश में क्यों नहीं जाते ? इससे यह स्पष्ट होता है, कि लोक-आकाश (Finite space) के आगे संसार (Univ.rse) नहीं है । वास्तविक सत्य यह है, कि लोक का
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