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धर्म और अधर्म - द्रव्य | २१
निर्माण स्थायी है । इसलिए लोक क्रमबद्ध या नियमबद्ध है । उसमें अन्य द्रव्यों की उपस्थिति इस बात का संकेत है, कि उनमें परस्पर संघर्ष नहीं है, अथवा वे एक-दूसरे के अवरोधक नहीं हैं, जो इस बात का प्रमाण देता है, कि लोक का ढाँचा स्थायी है । यह एक सैद्धान्तिक सत्य तथ्य है, कि लोक के मध्य में गतिशील अणु, द्रव्य की शक्ति के सिद्धान्त से आबद्ध है । यह द्रव्य शक्ति गतिमान अणु को संसार में ही रोक रखती है, बाहर नहीं जाने देती । इस शक्ति को या द्रव्य ( Subtance) को अधर्म - द्रव्य ( Medium of rest for soul and matter ) कहा गया है । "
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धर्म की तरह अधर्म - द्रव्य भी सम्पूर्ण लोक आकाश में व्याप्त 1 दोनों द्रव्यों का अस्तित्व लोक आकाश में ही है, और यही लोक की सीमा (Limit of world ) है । अधर्म - द्रव्य भी स्वभाव से पूर्णतः अभौतिक है, अपारमाणविक है, किसी निर्माता के द्वारा निर्मित नहीं है । इसमें पुद्गल (Matter) के गुण भी नहीं हैं । धर्म और अधर्म दोनों द्रव्यों में आकाश के गुण भी नहीं हैं, जबकि आकाश-प्रदेशों पर स्थित हैं । धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य पूर्णतः सामान्य हैं । ये दोनों अमूर्त हैं, और अरूपी हैं । ये दोनों न तो हल्के हैं और न भारी हैं। जैन परिभाषा के अनुसार इन्हें अगुरु-लघु कहा है । भारतीय दार्शनिकों ने विश्व या सृष्टि के निर्माण एवं विकास के सम्बन्ध में गहराई से विचार किया है, परन्तु जैन विचारकों एवं दार्शनिकों के अतिरिक्त किसी भी दार्शनिक एवं विचारक ने जीव और पदार्थ की गति ( Motion ) और स्थिति ( Rest ) का माध्यम ( Medium) क्या है ? इस सम्बन्ध में विचार नहीं किया । परन्तु जैन दर्शन ने जीव और पुद्गल द्रव्य की गति में सहायक द्रव्य को धर्म और स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्म कहा है । इनके अभाव में लोक न तो क्रमबद्ध रह सकता है, और न उसमें किसी तरह की व्यवस्था ही रह सकती है ।
धर्म, अधर्म और आकाश
भारतीय दर्शन में आकाश को ही गति और स्थिति का कारण माना है । जब जीव और पुद्गल आकाश में गति करते हैं और आकाश में ही स्थित होते हैं, तब उनके लिए धर्म और अधर्म - द्रव्य की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है ? इसके समाधान में जैन दर्शन का कहना है कि आकाश का गुण अवकाश देना है, गति एवं स्थिति में सहायक होना उसका गुण नहीं है । दूसरी बात यह है, कि जीव और पुद्गल स्वयं गतिशील हैं, और आकाश द्रव्य
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