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२२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
इतना व्यापक है, कि वह लोक और अलोक में सर्वत्र व्याप्त है। अतः यदि आकाश को ही गति में सहायक मान लिया जाये, तो कर्म-बन्धन से मुक्त हुआ आत्मा जब ऊर्ध्व गति करेगा, तब वह लोक की सीमा को पार करके अलोक में पहुँच जायेगा। इसी प्रकार अण भी गति करते समय लोक को पार कर जायेगा । क्योंकि जीव और परमाणु में स्वभावतः गति करने की शक्ति तो है ही, यदि उनके मार्ग में किसी भी तरह की रुकावट न आये, तो वे लोक से अलोक में भी पहुँच जाएँगे। और जीव एवं पुद्गल जो गतिशील हैं, वे सदा गति ही करते रहेंगे, और जो ठहरे हुए हैं, वे सदासर्वत्र स्थित ही रहेंगे । इस प्रकार लोक की व्यवस्था भी बिगड़ जायेगी, और अलोक को व्यवस्था भी बिगड़ जायेगी। अलोक में केवल शुद्ध आकाश (Pure space) ही है, अन्य द्रव्य नहीं है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आकाश में गतिशील एवं स्थितिशील द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति तो अलोक में भी है, परन्तु वहाँ जीव और पुद्गल में जो गति करने और स्थित होने की शक्ति है, उसको क्रियान्वित करने के साधन अथवा गति और स्थिति में सहायक द्रव्य का अलोक में अभाव है। और वे द्रव्य हैंधर्म और अधर्म । धर्म और अधर्म-ये दो द्रव्य ऐसे हैं, कि जो लोक और अलाक की सीमा को अंकित करते हैं।
वर्तमान युग के महान् वैज्ञानिक एवं विश्रुत गणितज्ञ अलबर्ट आइन्स्टीन ने लोक और अलोक की भेद-रेखा को बताते हुए लिखा है"लोक परिमित है और अलोक अपरिमित । लोक के परिमित होने के कारण द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक (Universe) के बाहर आकाश (Space) तो है, पर उस शक्ति का, द्रव्य (Substance) का अभाव है, जो गति में सहायक होती है।" आज के वैज्ञानिकों ने गति (Motion) में सहायक शक्ति अथवा द्रव्य को आकाश से भिन्न स्वीकार किया है। जैन-दर्शन उसे धर्म-द्रव्य कहता है और वैज्ञानिक उसे ईथर (Ether) कहते हैं, परन्तु वह आकाश से सर्वथा भिन्न है, इसमें दोनों एकमत हैं। अधर्म-द्रव्य और गुरुत्व-आकर्षण
__ईयर की खोज के बाद भी वैज्ञानिकों की समस्या का हल नहीं हआ । उनके सामने यह समस्या बनी हई थी, कि पदार्थ किस शक्ति से आकर्षित होकर पृथ्वी की ओर आते हैं और ग्रह, नक्षत्र एवं तारे आदि
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