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________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | १६ Relativity and Commonsense पुस्तक में F. M. Denton ने लिखा है-"न्यूटन द्वारा मान्य ईथर सघन है, तब भी पदार्थ उसमें बिना किसी संघर्ष के स्वतन्त्र गति से घूमते हैं यह लोचदार है। फिर भी इसके अन्य विभिन्न आकार नहीं हो सकते। यह घूमता है, पर इसकी गतिशीलता परिलक्षित नहीं होती। जड़ पदार्थों पर इसका प्रभाव पड़ता है, पर यह पदार्थों से प्रभावित नहीं होता। इसके पिण्ड नहीं है, और न इसके अलग-अलग अंशों को हम पहचान सकते हैं। यह स्थिर तारों की अपेक्षा निष्क्रिय है, जब कि एक-दूसरे की अपेक्षा से तारे गतिशील माने गए हैं।" ईथर की गति को लेकर अनेकों प्रयोग (Experiments) हुए पर उन सबका अन्तिम निष्कर्ष यह निकला कि ईथर गति-शून्य है। यह नितान्त निष्क्रिय है। DC. Miller ने 'Nature' पत्रिका में 3 Feb. 1934 के अंक में लिखा है-"पृथ्वी की गति एक निष्क्रिय ईथर में से है, ऐसा मान्य करने पर ही अन्वेषण द्वारा प्राप्त फलानुवर्ती परिमाण और दिशा सम्बन्धी परिवर्तन संभव हैं।" Mr. A. S. Eddington ने एक स्थान पर FATET - "Now-a-days it is agreed that ether is not a kind of matter-वर्तमान युग में हम इस बात में सहमत हैं कि ईथर भौतिकद्रव्य नहीं है ।" अपनी पुस्तक "The Nature of the physical world", P. 31 पर ईथर के सम्बन्ध में लिखा है-"इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि ईथर की मान्यता को हमने छोड़ दिया है, अथवा विश्व में ईथर नहीं है। हमें ईथर की आवश्यकता है। गत शताब्दी में प्रायः यह मान्य था, कि ईथर एक द्रव्य (Substance) है, भौतिक पदार्थ की एक जाति है, सघन है, साधारण द्रव्य की तरह गतिशील है। इसका इतिहास बताना कठिन होगा, कि इस मान्यता का कब त्याग किया गया। परन्तु वर्तमान में यह मान्य कर लिया है, कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है। अभौतिक द्रव्य होने के कारण उसकी प्रकृति एवं उसके गुण बिल्कुल भिन्न होंगे। पिण्डत्व और घनत्व के गुण हमें जो भौतिक पदार्थों में मिलते हैं, उनका ईथर में अभाव होगा, परन्तु अपने ही नये और निश्चयात्मक गुण होंगे ईथर के अभौतिक समुद्र में (Non-Material ocean of ether)।" ___ धर्म-द्रव्य और ईथर की तुलना करते हुए प्रो० जी० आर० जैन, एम० एस-सी० ने अपनी पुस्तक "नूतन और प्राक्तन सृष्टि विज्ञान" में पृष्ठ ३१ पर लिखा है-"यह प्रमाणित हो चुका है कि जैन दार्शनिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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