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८० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व
उपयोग दो प्रकार के हैं-साकार और निराकार । साकार ज्ञान है, निराकार दर्शन । ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-पांच ज्ञान और तीन अज्ञान । दर्शनोपयोग के चार भेद हैं । अतः उपभोग के द्वादश भेद होते हैं ।
जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये चार गुण हों, वह मूर्त होता है । पुद्गल को छोड़कर ये चार गुण अन्यत्र कहीं नहीं रहते । अतः पुद्गल मूर्त है, और शेष पांच द्रव्य अमूर्त हैं।
भारतीय दर्शनों में जीव के परिमाण के विषय में तीन मत हैंविभु, अणु और मध्यम । न्याय वैशेषिक दर्शन आत्मा को विभु परिमाण मानते हैं । भक्तिवादी आचार्य रामानुज अणु परिमाण मानते हैं । एकमात्र जैन ही जीव को मध्यम परिमाण मानते हैं। अतएव जैन दर्शन में जीव को स्वदेह परिमाण कहा गया है ।
सांख्य-योग दर्शन में आत्मा को भोक्ता कहा है, और प्रकृति को कर्ता । लेकिन यह तर्कसंगत नहीं है। जैन दर्शन का सिद्धान्त है-यः कर्ता, स एव भोक्ता । जोव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध । संसारी अशुद्ध तथा सिद्ध शुद्ध है । सिध्यमान जीव की गति ऊपर की ओर ही होती है-निज स्वभाव से। दर्शनगत लक्षण
भारत के विभिन्न दर्शनों में जीव के अलग-अलग लक्षण किये गये है। न्याय-वैशेषिक में आत्मा का लक्षण है-"ज्ञानाधिकरणमात्मा ।" आत्मा ज्ञान का अधिकरण है, अर्थात् ज्ञान का आश्रय है । ज्ञान गुण एक मात्र आत्मा में ही रहता है, अन्यत्र नहीं ।
सांख्य-योग दर्शन में जीव का लक्षण है-"चैतन्यं पुरुषस्य लक्षणम् ।" पुरुष अर्थात् आत्मा का धर्म है-चैतन्य अर्थात् चेतना । चैतन्य प्रकृति का धर्म नहीं, पुरुष का ही असाधारण धर्म है।
वेदान्त में ब्रह्म के दो लक्षण हैं-स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण । स्वरूप लक्षण है-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । ब्रह्म सत्, चित्त और आनन्द रूप है । तटस्थ लक्षण है-जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में हेतु है, वह ब्रह्म है, और वह अनन्त है।
जैन दर्शन में जीव का लक्षण इस प्रकार किया है-"उपयोगो जीवस्य लक्षणम् ।" जीव का लक्षण है - उपयोग । उपयोग शब्द जैन दर्शन
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