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जीव- द्रव्य | ८१
का पारिभाषिक शब्द है । उपयोग का अर्थ है - ज्ञान । ज्ञान गुण ही आत्मा का असाधारण धर्म है । उपयोग आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में अथवा तत्त्व में नहीं रहता । संसारी जीव का उपयोग अशुद्ध और सिद्ध का उपयोग परम विशुद्ध है । लेकिन उपयोग की सत्ता - संसारी और सिद्ध- दोनों में ही है ।
अतएव जीव के इस लक्षण में न अतिव्याप्ति दोष है, न अव्याप्ति और न असम्भव । जैन परम्परा के समस्त दार्शनिकों ने जीव का यही लक्षण किया है । उपयोग दो प्रकार का है - साकार और निराकार |
तर्क-शास्त्रगत लक्षण
तर्क - शास्त्र में अथवा न्याय - शास्त्र में जीव के लिए प्रमाता शब्द का प्रयोग किया गया है । प्रमाता, प्रमाण, प्रमा और प्रमेय । इन चार शब्दों का तात्पर्य समझ लेना आवश्यक है । न्याय - शास्त्र का सिद्धान्त है, कि प्रमाता प्रमाण के द्वारा प्रमेय को जानता है । प्रमा का अर्थ है, यथार्थ ज्ञान । प्रमेय का अर्थ है, वह वस्तु जो प्रमाण के द्वारा ज्ञात हो । प्रमाण का अर्थ है - प्रमा का करण । प्रमाता का अर्थ है - ज्ञाता, जानने वाला । जीव ज्ञाता है । क्योंकि ज्ञान उसका विशेष गुण होता है ।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर
आचार्य ने अपने ग्रन्थ न्यायावतार की इकत्तीसवीं कारिका में प्रमाता का, जीव का लक्षण किया है - " प्रमाता स्वान्यनिर्भासी स्वसंवेदन संसिद्धो जीवः ।" जीव प्रमाता है । वह स्व और पर का ज्ञाता है । अपने कर्मों का कर्ता है । कर्मफल का भोक्ता है । जीव परिणामी नित्य है । स्व-संवेदन से सिद्ध है । उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। जीव क्षिति, जल, तेज, वायु और आकाश रूप नहीं है । क्योंकि ये पञ्चभूत चेतनाशून्य हैं । जीव चेतनावान् है । अतएव वह पञ्चभूतात्मक नहीं । जो पञ्चभूतात्मक होता है, वह जीव नहीं होता । जैसे प्राणियों का शरीर है ।
जो तीनों कालों में जीवित है, वह जीव है । प्राणों को धारण करने वाली आत्मा जीव शब्द वाच्य है । क्या है, जीवन ! दश प्रकार के प्राणों का धारण करना | कौन-से हैं दश प्राण ! स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र तथा मन, वचन, काय एवं उच्छ्वास - निःश्वास और आयुष् ।
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