________________
८२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
ये दश द्रव्य प्राण मुक्त जीवों के नहीं होते हैं । लेकिन मुक्त जीवों के भाव प्राण होते हैं, और वे हैं - क्षायिकज्ञान तथा क्षायिकदर्शन ।
वादिदेव सूरि
आचार्य ने स्वनिर्मित तर्क ग्रन्थ प्रमाणनयतत्त्वालोक के सातवें परिच्छेद के सूत्र ५५ एवं ५६ में जीव का लक्षण किया है - " प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध आत्मा ।" प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध आत्मा प्रमाता कहा जाता है । वह आत्मा चैतन्यस्वरूप है । वह परिणमनशील है । कर्ता है और भोक्ता भी है । अपने प्राप्त शरीर के बराबर है । जीव प्रत्येक शरीर में भिन्न है । जीव, पुद्गलरूप अदृष्ट कर्म वाला है ।
चार्वाक आत्मा को नहीं मानता । अतः कहा गया कि आत्मा, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों से सदा सिद्ध है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ - यह स्व-संवेदन प्रत्यक्ष है । रूप आदि के ज्ञान का कोई कर्ता अवश्य है । क्योंकि जानना एक क्रिया है । जो क्रिया होती है, उसका कोई कर्ता अवश्य होता है, जैसे छेदन की क्रिया । जानने की क्रिया का जो कर्ता है, वही आत्मा है, वही जीव है । जो कर्ता होता है, वह भोक्ता भी होता है । सांख्य दर्शन प्रकृति को कर्ता और पुरुष को भोक्ता मानता है । उसका यहाँ खण्डन किया गया है । जीव चैतन्यस्वरूप है । न्याय-वैशेषिक में आत्मा को चैतन्यस्वरूप नहीं माना है । अतः उसका यहाँ खण्डन किया है । परिणामी विशेषण से सांख्य मत का खण्डन है । क्योंकि वह पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है । स्वदेह परिमाण विशेषण से न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग मतों का खण्डन किया गया है । क्योंकि वे आत्मा को आकाश की भाँति व्यापक मानते हैं । प्रतिशरीर भिन्न विशेषण से वेदान्त का खण्डन किया है । क्योंकि वेदान्त मत में समस्त शरीरों में एक ही आत्मा माना गया है। अदृष्टवान् विशेषण से चार्वाक मत का निराकरण किया गया है। क्योंकि वह अदृष्ट को नहीं मानता है ।
सिद्धि का स्वरूप
आचार्य वादिदेव सूरि ने सिद्धि का स्वरूप बताते हुए कहा है"सम्यग्ज्ञान-क्रियाभ्यां कृत्स्नकर्मक्षयस्वरूपा सिद्धि: ।" प्रत्येक मनुष्य सिद्धि की साधना कर सकता है । शरीर नर का हो अथवा नारी का, सिद्धि की साधना में उसके कारण से कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। क्योंकि मुक्ति का कारण समग्र कर्मों का क्षय है और क्षय होता है - सम्यग्ज्ञान और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org