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जीव-द्रव्य | ८३
सम्यक्चारित्र से । यहाँ पर 'स्त्री का शरीर' इस कथन से स्त्री-मुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय का खण्डन किया गया है। “पुरुष शरीर" ग्रहण करने से शूद्र-मुक्ति का निषेध करने वालों का निराकरण किया गया है। कुछ लोग ज्ञान मात्र से तथा कुछ लोग क्रिया मात्र से मुक्ति मानते हैं । उनका खण्डन करने के लिए ज्ञान और क्रिया-दोनों का ग्रहण किया है।
यद्यपि जिनशासन में सम्यग्दर्शन को भी मोक्ष का उपाय कहा गया है, तथापि वह सम्यग्ज्ञान का सहचर होता है । जहाँ सम्यग्ज्ञान होगा, वहाँ सम्यग्दर्शन अवश्य होगा । अतः उसकी अलग गणना नहीं की है।
आचार्य हेमचन्द्र
आचार्य ने स्वप्रणीत प्रमाण-मीमांसा के प्रथम अध्याय के ४२वें सूत्र में प्रमाता का, ज्ञाता एवं जीव का लक्षण इस प्रकार से दिया है-“स्वपराभासी परिणामी आत्मा प्रमाता ।" स्व और पर का ज्ञाता, परिणमनशील आत्मा प्रमाता होता है। दीपक स्वप्रकाशक होने के साथ परप्रकाशक भी है। उसे प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं । कुछ लोग आत्मा को स्वप्रकाशक ही मानते हैं और कुछ पर-प्रकाशक ही मानते हैं। अतः दोनों का निराकरण हो जाता है । परिणामी का क्या अर्थ है ? जिसमें एक साथ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रहे, वही परिणामी होता है । आत्मा न कूटस्थ नित्य है, न क्षण-विनश्वर है। जीव नित्य भी है, अनित्य भी है । जैसे सर्प की कुण्डलावस्था मिटती है, तदनन्तर सरलता अवस्था उत्पन्न होती है, और सर्पत्व दोनों अवस्थाओं में ज्यों का त्यों कायम रहता है। आत्मा की सुख एवं दुःख आदि अवस्थाएँ विनष्ट होती रहती हैं। उत्पन्न भी होती रहती है। लेकिन चैतन्य ज्यों का त्यों स्थिर बना रहता है।
आत्मा को एकान्त विनाशशील मान लिया जाए, तो कृतकर्मप्रणाश और अकृतकर्मागम दोषों का प्रसंग उपस्थित होता है। यदि आत्मा को एकान्त नित्य माना जाए, तो सुख-दुःख आदि विविध प्रकार के पर्यायों का होना सम्भव नहीं रहता। कुछ लोग कर्तत्व और भोक्तत्व--आत्मा में नहीं होते, उसकी अवस्थाओं में होते हैं, इस प्रकार का कथन करते हैं। किन्तु यह कल्पना असंगत है । क्योकि अपनी अवस्थाओं से अवस्थावान्
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