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जीव द्रव्य | ७६
वह जीव भी नहीं। यहाँ जीव के लक्षण का कथन भेदनय से किया गया है । अभेदनय से तो उपयोग कहने भर से ही जीव का लक्षण सिद्ध हो जाता है । आत्मा के समस्त गुणों का समावेश उपयोग में हो जाता है। अतः उपयोग ही वस्तुतः जीव का लक्षण है।
षट् पर्याप्ति संसारी जीव के छह पर्याप्ति होती है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वास-प्रश्वास, भाषा और मन । पर्याप्ति का अर्थ है-पुद्गल के उपचय से होने वाला जो पूदगल परिणमन हेतु शक्ति विशेष । उसके दो भेद हैंलब्धि पर्याप्ति और करण पर्याप्ति । जिस कर्म के उदय से प्रारब्ध स्वयोग्यं पर्याप्ति, अभी पूरी नहीं की, लेकिन करेगा, उसे लब्धि पर्याप्त कहते हैं । जिस जीव के पास यह हो, वह लब्धि पर्याप्त जीव होता है। जिसने स्वयोग्य समस्त पर्याप्ति पूरी की हैं, वह जीव करण पर्याप्त है, और उसकी पर्याप्ति करण पर्याप्ति कही जाती है । अतएव संसारी जीवों के दो भेद हैं-पर्याप्त एवं अपर्याप्त ।
दश प्राण प्राणी तथा प्राणवान् जीव को कहते हैं । जिसके पास प्राण हो, वह प्राणी है। प्राण के दो भेद हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । निश्चय नय से एकमात्र चेतना ही प्राण है । किन्तु व्यवहारनय से जीव के चार प्राण होते हैं-इन्द्रिय, बल, आयुष्य और श्वास-प्रश्वास । इन्द्रिय के पाँच भेद हैं। बल के तीन भेद हैं । बल तीन हैं, कायबल, वचनबल और मनोबल । सब मिलाकर प्राण के दस भेद हैं । ये दसों प्राण द्रव्य प्राण हैं । चेतना भाव प्राण है । सिद्धों में भाव प्राण है, और संसारी में द्रव्य और भावदोनों हैं । संसारी जीव में कम से कम चार प्राण तथा अधिक से अधिक दस होते हैं।
अध्यात्मगत लक्षण अध्यात्म शास्त्र में जीव का लक्षण किया गया है-"जीवो उवयोगमओ अमुत्ति, सदेह परिमाणो" । जो जीव है, वह उपयोग-रूप है। जो जीव है, वह अमूर्त है । जो जीव है, वह स्वदेह परिमाण है। जीव स्व कर्मों का कर्ता भी है । जीव अपने कर्म का फल-भोक्ता भी है। जीव संसारस्थ भी है, और सिद्ध भी है । जोव अपने निज स्वभाव से ऊर्ध्व गमन करने वाला है।
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