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________________ ४८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व काल, पुद्गल और जीव मैं आपको पहले बता चुका हूँ कि षड्-द्रव्यों में जीव और अजीव, चेतन और जड़-दो द्रव्य मुख्य हैं। जीव के अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अजीव हैं, अचेतन हैं। आगम में अजीव को दो प्रकार का बताया है-रूपी और अरूपी या मूर्त और अमूर्त । धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चारों द्रव्य अरूपी हैं, अमूर्त हैं । केवल पुद्गल-द्रव्य ही रूपी एवं मूर्त हैं । मैं अभी आपको काल के सम्बन्ध में बता रहा था कि अरूपी एवं अमूर्त द्रव्यों की पर्यायों में जो परिणमन होता है, उसमें काल-द्रव्य सहायक है, परन्तु उस का सीधा असर जीव और पुद्गल पर होता है। व्यवहारकाल का प्रभाव जीवों और पृदगलों पर ही पड़ता है। इसलिए महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा है-“यदि विश्व में पदार्थ (Matter) नहीं होता, तो आकाश और काल-दोनों नष्ट हो जाते। पदार्थ के अभाव में हम काल और आकाश को स्वीकार नहीं करते। यह पदार्थ है, जिसमें से (Space) आकाश और (Time) काल प्रारम्भ होते हैं और हमें इनसे विश्व (Universe) का बोध होता है।" जैन-दर्शन इस बात को नहीं मानता कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को उत्पन्न करता है । पदार्थ, जोकि मूर्त है, अपने से भिन्न काल एवं आकाश द्रव्यों को कथमपि उत्पन्न नहीं कर सकता, जो कि अमूर्त हैं। भारतीय-दर्शन और उसमें विशेष रूप से जैन-दर्शन यह भी नहीं मानता कि काल एवं आकाश का अस्तित्व एवं मूल्य पदार्थ (Matter) के कारण है। सभी द्रव्यों का अपना स्वतन्त्र मूल्य एवं महत्व है। यदि विश्व में किसी को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जाए, तो वह जीव है, जो अपने ज्ञान के द्वारा अपने से भिन्न द्रव्यों के स्वरूप का यथार्थ रूप से जानने का प्रयत्न करता है और उन्हें जान भी लेता है। परन्तु विज्ञान की इस बात से जैन-दर्शन सहमत है कि पदार्थ का अस्तित्व होने के कारण काल का स्वरूप क्या है, उसकी शक्ति क्या है ? यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है। जीव-द्रव्य अमूर्त है और वह अपनी पर्यायों में ही परिणमन करता है। उस परिणमन में काल सहायक है, माध्यम मात्र है। परन्तु संसार अवस्था में राग-द्वोष आदि वैभाविक भावों में परिणति होने के कारण आत्मा कर्मों से आबद्ध होकर चार गति एवं चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता है। जब कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों का बन्ध होता है, उस समय प्रकृति, अनुभाग एवं प्रदेश-बन्ध के साथ स्थिति-बन्ध भी होता है और जितने काल की स्थिति का बन्ध होता है, उसी के अनुरूप कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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