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________________ काल-द्रव्य | ४७ को घेरे हुए है, अतः उसके लिए भी यह प्रयोग किया जाता है कि अलोक में स्थित आकाश त्रि-कालवर्ती है, अनन्त समय से वह है और अनन्त समय तक रहेगा। वैज्ञानिक दृष्टि में काल जैन-दर्शन की तरह विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि प्रत्यक्ष या व्यवहार-काल (Apparent-time) के पीछे निश्चय अथवा यथार्थ काल (Real-time) भी है। प्रो० एडिनाटन का कहना है-"Whatever may be time deJure-जो कुछ भी हो काल नियमानुसार है ।" ज्योतिष विज्ञानवेत्ता रोयल का कहना है - "Time is Time de-facto-काल कार्य से अथवा यथार्थ में काल है।" महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन भी काल को वास्तविक स्वीकार करता है और वह उसके अस्तित्व को सम्पूर्ण लोक में मानता है। काल के सम्बन्ध में आइन्स्टीन की मान्यता यह है-"Time and space are mixed up in a rather strange way-काल और आकाश वास्तव में आश्चर्यजनक रास्ते से एक-दूसरे में मिल गए हैं।"1 वास्तव में कोई भी द्रव्य अपने से भिन्न दूसरे द्रव्य में नहीं मिलता है। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार एक द्रव्य की अनन्त-अनन्त पर्यायें भी अपने से भिन्न दूसरी पर्याय में नहीं मिलती। संसार अवस्था में आत्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध एक-सा दिखाई देता है, फिर भी आत्मा का एक भी प्रदेश, एक भी गुण और एक भी पर्याय पुद्गल के परमाणुओं, उसके गुणों और उसके पर्याय में नहीं मिलते हैं। अतः आकाश-द्रव्य न तो काल के रूप में परिणत होता है और न काल-द्रव्य आकाश के रूप में । दोनों का परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में ही होता है। फिर भी आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जो कालाणु से शून्य हो। इस दृष्टि से काल आकाश में मिला हआ-सा परिलक्षित होता है। इस अपेक्षा से माना जाए, तो जैन-दर्शन भी इसे स्वीकार करता है कि आकाश का एक-एक प्रदेश न तो भूत काल में कालाणु से शून्य रहा है, न वर्तमान में वह कालाणु से शुन्य है और न भविष्य में वह कालाणु से शून्य होगा। 1. The Nature of the Physical world, P. 36. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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