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४६ / जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व
व्यवहार-काल का उपयोग होता है, उसके बाहर नहीं। परन्तु लोक का एक भी ऐसा आकाश-प्रदेश नहीं है, जहाँ काल-द्रव्य न हो। व्यवहार-काल भले ही वहाँ न हो, निश्चय-काल लोक में सर्वत्र व्याप्त है।
जिसे हम काल कहते हैं, वह व्यवहार जगत की वस्तु है। परन्तु काल का जो सबसे छोटा अंश है, जिसके दो विभाग नहीं होते, उसे समय कहा है । एक परमाण लोक-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाता है, उसमें जितना समय लगता है, उसे एक समय कहा है। समय, निश्चय जगत की वस्तु है । वह लोक में सर्वत्र व्याप्त है । लोक में व्याप्त षड्-द्रव्यों की पर्यायों में प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, उसमें समय ही सहायक है । यदि समयरूप काल का ढाई-द्वीप या मनुष्य क्षेत्र से बाहर अभाव मान लिया जाए, तो वहाँ किसी भी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं रहेगा । क्योंकि द्रव्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अपनी पर्यायों में द्रवित होता रहता है। उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, उसकी पुरातन पर्याय का नाश होता है और नयी पर्याय उत्पन्न होती है । परिणमन द्रव्य का स्वभाव है और समय के माध्यम के बिना वह कथमपि सम्भव नहीं है । अतः समय सर्वत्र व्याप्त है ।
जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि समय रूप कालाणु असंख्यात प्रदेश वाले लोक-आकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित हैं, सभी कालाणु स्वतन्त्र हैं, वे एक-दुसरे में मिलते नहीं हैं। यदि एक कालाणु दूसरे कालाणु में अथवा एक समय दूसरे समय में मिल जाए, तो फिर वे एक ही हो जाएँगे, उनमें अनेकत्व नहीं रहेगा। अतः स्वभाव से वे एकदूसरे से अलग हैं । सम्पूर्ण विश्व कालाणुओं से परिपूर्ण है, लोक-आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं, जो इनसे शून्य हो। पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि से (In a static condition) ये कालाणु दृष्टिगत नहीं होते हैं, आकार रहित हैं, निष्क्रिय हैं और संख्या में गिने नहीं जा सकते (Countless) हैं । इस प्रकार निश्चय काल सर्वत्र है और वह अनन्त है। क्योंकि पर्यायों में परिणमन अनन्त काल से होता आ रहा है, वर्तमान समय में हो रहा है और अनन्त अनागत काल में होता रहेगा। पर्यायों में होने वाला परिवर्तन अनादि-अनन्त है, इस अपेक्षा से समय भी अनन्त है। समय का अस्तित्व अथवा काल-द्रव्य का अस्तित्व लोक में हो है, अनोक में नहीं । अनार में केवल शुद्ध आकाश (Only pure space) है, फिर भी चारों ओर से लोक
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