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________________ काल- द्रव्य | ४६ उदय में आकर अपना फल देकर फिर आत्म- प्रदेशों से अलग हो जाता है । इसी प्रकार जिस भव का जितने समय का आयु-कर्म का बन्ध होता है, उतने समय तक आयु-कर्म का भोग करने के बाद उस भव का जीवन समाप्त हो जाता है । आयु-कर्म के क्षय होते ही उस भव की पर्याय का नाश हो जाता है और दूसरे भव के बाँधे हुए आयु- कर्म के अनुरूप उस भव की पर्याय उत्पन्न होती है । इसी को लोक भाषा में मृत्यु कहते हैं और व्यक्ति सदा इससे भयभीत बना रहता है । रात-दिन व्यक्ति काल से, मृत्यु से बचने का प्रयत्न करता है । वैज्ञानिक भी व्यक्ति को मृत्यु से बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं । फिर भी वे अब तक उसमें सफल नहीं हो सके हैं। परन्तु जिस व्यक्ति ने अपने स्वरूप को जान लिया और जिसे स्व-रूप पर विश्वास है, वह मृत्यु से या काल से भयभीत नहीं होता। क्योंकि काल, पुद्गल के आकार में ही परिवर्तन करता है । आत्मा के अस्तित्व का नाश करने की ताकत काल में नहीं है । वीतराग एवं प्रबुद्ध - साधक यह भली-भाँति जानते हैं कि काल अपनी गति से चलता रहा है और चलता रहेगा । वह न तो कभी समाप्त हुआ है और न कभी समाप्त होगा । वह अपने स्वभाव के अनुरूप अपना कार्य करता है । परन्तु इसके निमित्त को पाकर जो मुझे भव-भ्रमण करना पड़ता है, उसका मूल कारण काल नहीं, प्रत्युत राग द्वेष आदि वैभाविक भावों में होने वाली मेरी परिणति ही है । विभाव से हट कर स्वभाव में स्थिर हो जाऊँ, स्वरूप में रमण करता रहूँ, तो उससे कभी भी बन्ध नहीं होगा और नये कर्मों के बन्ध के अभाव के कारण वर्तमान भव के आयु कर्म का क्षय होने के बाद अन्य भवों की पर्याय भी उत्पन्न नहीं होगी । अतः परिणामस्वरूप मृत्यु का स्वतः ही अन्त हो जाएगा । वस्तुतः राग-द्वेष एवं कषाय आदि विकारों के कारण आत्मा का पुद्गलों के साथ संयोग सम्बन्ध होने के कारण ही उसे संसार में जन्ममरण के प्रवाह में प्रवहमान होना पड़ता है । अतः काल को नष्ट करने का नहीं, प्रत्युत राग-द्वेष को हटाकर वीतराग-भाव, जो आत्मा का स्वभाव है और आत्मा का निज गुण है, उस में स्थिर होने का प्रयत्न करें। जितनाजितनी राग-द्वेष की परिणति कम होगी, आत्मा उतनी ही जल्दी भव - मूर्त पुद्गलों के भ्रमण के चक्र से मुक्त हो सकेगा । अतः काल के कारण आकार-प्रकार में परिवर्तन होता है। पुद्गल की स्थूलता कारण वह परिवर्तन परिलक्षित होता है और वह भी पुद्गल द्रव्य के स्व एवं रूपीपन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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