SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व है । शब्द में आसक्ति से हरिण एवं सर्प का वध होता है । रूप में आसक्ति से पतंगे की मृत्यु हो जाती है । वह दीपक पर मर जाता है । गन्ध में आसक्ति से भ्रमर कमल में बन्द हो जाता है । रस में आसक्ति से मत्स्य जाल में फँस जाता है । स्पर्श में आसक्ति से बलवान गजराज भी बन्धन बद्ध हो जाता है । परन्तु जो 'मनुष्य पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है, उसकी क्या दशा होगी । अतः इन्द्रियों को विषयों से हटाना चाहिए । विषयों में प्रवृत्ति ही आव है, वह बन्ध का कारण है । अयतना -यतना न करना - आसव है । उसके दो भेद हैं १. भण्डोपकरण - वस्त्र, पात्र अथवा अन्य किसी भी उपकरण को, संयम के साधन को यतना से न रखना और यतना से न उठाना । - २. सूचिकुशाग्र मात्र - सूचि एवं कुशा के अग्रभाग जितनी छोटी वस्तु को भी अयतना से रखना और उठाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy