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आस्रव-तत्त्व | १४५
३. रस
४. स्पर्श ५. शब्द ४. योग आस्रव के तीन भेद : १. मनोयोग २. वचनयोग
३. काय योग ५. अयतना आस्रव के दो भेद :
१. भण्डोपकरण २. सूचि-कुशाग्र मात्र
१. मिथ्यात्व-वीतराग कथित तत्वों पर श्रद्धा न होना। अथवा विपरीत श्रद्धान का होना । जो तत्व नहीं है, उसको तत्व समझ लेना। मोक्ष मार्ग को संसार का मार्ग मान लेना, और संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझ लेना-मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वमोह के उदय से विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं।
२. अव्रत-हिंसा, असत्य, चोरी, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग न करना । पाँच पापों से निवृत्त न होना-अव्रत आस्रव होता है।
३. प्रमाद-शुभ योग के अभाव को अथवा शुभ कार्य का स्वीकार न करना । सत्कर्म में प्रयत्न न करना। जिससे जीव ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोरूप मोक्ष मार्ग में, प्रमाद करता है ।
४. कषाय-जो शुद्ध स्वरूप आत्मा को कलुषित करता है, वह कषाय है। जो कर्मरूप मल से आत्मा को मलीन बनाता है, वह कषाय होता है। कष अर्थात् कर्ममल किंवा संसार की अभिवृद्धि हो, प्राप्ति हो, उसे कषाय कहा जाता है। कषायमोहकर्म के उदय से होने वाला, जीव का क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप परिणाम कषाय है।
५. योग-मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहते हैं । योग के दो भेद होते हैं- शुभ योग और अशुभ योग । योग आस्रव है ।।
पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द । शब्द श्रोत्र का विषय है । रूप नेत्र का विषय है । रस रसना का विषय है । गन्ध घ्राण का विषय है। स्पर्श त्वचा का विषय है। यदि इन्द्रियाँ इनमें राग-द्वषवश प्रवृत्ति करती हैं, तो यह आस्रव होता है । आस्रव से कर्म का बन्ध होता है, जिसका परिणाम है- दुःख एवं क्लेश । जीव पीडा भोगता
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