________________
१४४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उसी प्रकार आत्मा के कर्म आने में योग स्रोत के तुल्य है, जिससे कर्म-रण अन्दर आ जाता है।
जैन दर्शन का योग शब्द पारिभाषिक है। इस योग का अर्थ हैप्रवृत्ति । पतञ्जलि ने भी अपने योग-दर्शन में योग शब्द का प्रयोग बहुलता से किया है । परन्तु उस योग का अर्थ-निवृत्ति ही है। चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जैन दर्शन में उस अर्थ में संवर शब्द का प्रयोग किया गया है।
__ आस्रव का निरोध करके संवर की ओर जाना ही साधना कही जाती है । शास्त्रों में सर्वत्र ही आस्रव का निषेध किया गया है । क्योंकि यह कर्मबन्ध का कारण है। बन्ध से संसार की प्राप्ति होती है। जब तक बन्ध का कारण है, तब तक बन्ध होता ही रहेगा। बन्ध है, तो जन्म-मरण भी होता रहेगा । जन्म और मरण का चक्र ही संसार का सब से बड़ा दुःख है । दुःख और क्लेश का अन्त करने के लिए इस आस्रव को रोकना आवश्यक है । नव तत्वों में आस्रव को भी तत्त्व माना गया है। लेकिन वह उपादेय नहीं है, हेय माना गया है। छोड़ने के योग्य है। उसका आचरण नहीं किया जाता। जिसको छोड़ना हो, उसे समझना भी आवश्यक होता है।
आस्रव के भेद
१. बन्ध हेतुभूत आस्रव के पाँच भेद :
१. मिथ्यात्व २. अव्रत ३. प्रमाद
४. कषाय ५. अशुभ योग २. अव्रत आस्रव के पाँच भेद :
१. प्राणातिपात २. मषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह ३. विषय आस्रव के पाँच भेद : १. वर्ण
२. गन्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org