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________________ ७. आस्रव-तत्त्व कर्म के दो प्रकार हैं- शुभ और अशुभ। शुभ तथा अशुभ कर्म के आने के द्वार को आस्रव कहा जाता है । जैसे किसी तालाब में पानी आने के द्वार को अर्थात् नाली या मोरी को आस्रव कहा जाता है । आस्रव, जिसके द्वारा जीव रूपी सरोवर में कर्म रूपी जल प्रवेश करता है, अन्दर आता है, उसको कहा जाता है । मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहते हैं । काय, वचन और मन के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में हलन चलन होने को योग कहते हैं । योग के तीन भेद हैं १. मनोयोग - मन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलनचलन होता है, उसको मनोयोग कहते हैं। क्योंकि मन की क्रिया निमित्त है । २. वचनयोग - वचन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन - चलन होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । क्योंकि वचन की क्रिया निमित्त है । ३. काययोग-काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलनचलन होता है, उसे काययोग कहते हैं । इन तीनों योगों की उत्पत्ति में वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम कारण है । इस प्रकार मन की क्रिया को, वचन की क्रिया को और काय की क्रिया को योग कहा गया है । जैन दर्शन में इस त्रिविध योग को आस्रव कहा है । जिस प्रकार कूप में पानी आने में, कूप के अन्दर ही अन्दर चारों और स्रोत होते हैं, ( १४३ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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