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१४२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
३. माया-माया मोहकर्म के उदय से मन, वचन एवं काय की कुटिलता द्वारा पर-वञ्चना रूप आत्मा के परिणाम को माया कहते हैं ।
४. लोभ-लोभ मोहकर्म के उदय से मूर्छा, तृष्णा एवं असन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। लोभ से परिग्रह होता है।
५. राग माया और लोभ, जिसमें अप्रकट रूप में विद्यमान हों, वह आसक्ति रूप जीवन का परिणाम राग कहा जाता है । यह बन्धहेतु है।
६. द्वोष-क्रोध और मान, जिसमें अव्यक्त रूप से हों, वह अप्रीतिरूप जीव का परिणाम द्वष कहा जाता है । यह बन्धहेतु है ।
मनुष्य वाणी पर संयम न रखने के कारण भी पाप करता है। वाणी के चार पाप हैं
१. कलह-झगड़ा करना, राड़ करना ।
२. अभ्याख्यान-किसी में अविद्यमान दोषों का आरोप लगना। लांछन लगाना।
३. पैशुन्य--पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना । चुगली करना, काना-फूंसी करना।
४. पर-परिवाद-पर की निन्दा करना । दूसरों की दृष्टि में उसके व्यक्तित्व को गिराना।
मनुष्य में कायकृत तथा वचनकृत पाप के अतिरिक्त सबसे बड़ा पाप मानसिक भी होता है
१. रति-अरति-प्रियता तथा अप्रियता, नोकषायमोहकर्म के उदय से जीव में जो प्रियता एवं अप्रियता का भाव होता है, वह रतिअरति है।
२. मायामृषा-मायापूर्वक असत्य बोलना । दो दोषों का एक साथ सेवन करना।
३. मिथ्यादर्शन-श्रद्धा का विपरीत होना। यह आत्मा का एक भयंकर शल्य है।
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