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________________ पाप-तत्त्व | १४१ है । प्रमादवश प्राणों का अतिपात करना, प्राणातिपात है । हिंसा की व्याख्या में कहा गया है, कि पाँच इन्द्रिय, तीन बल, श्वास-प्रश्वास और आयुष्य - किसी के भी इन दश प्राणों का घात करना, हिंसा है । प्राणातिपात दो प्रकार का है- द्रव्य और भाव । द्रव्य प्राणों का घात करनाद्रव्य हिंसा है । क्रोध एवं द्वेष-भाव हिंसा है, यह अधर्म है । २. मृषावाद - मिथ्या भाषण करना - मृषावाद है । उसके दो भेद - द्रव्य और भाव । मिथ्या भाषण के चार भेद भी होते हैं - अभूत-उद्भावन, भूतनिन्हव, वस्त्वन्तर न्यास और परनिन्दा | ये चारों मिथ्या भाषण के प्रकार हैं । ३. अदत्तादान स्वामी, जीव, तीर्थंकर और गुरु द्वारा अदत्त वस्तु को ग्रहण करना- चोरी है । वस्तु तीन प्रकार की है - सचित्त, अचित्त एवं मिश्र । ४. मैथुन - मिथुन के भाव को अथवा कर्म को मैथुन कहा जाता है । रागवश नर-नारी के संयोग तथा सहवास को मैथुन कहा गया है । ५. परिग्रह - मूर्च्छा भाव को परिग्रह कहा है । ममतावश वस्तुओं का संचय करते रहना । परिग्रह के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । धन, धान्य, कनक और रजत आदि बाह्य परिग्रह हैं, और प्रमाद, कषाय तथा मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर परिग्रह हैं । मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- कषायमोह और नोकषायमोह | कषायमोहकर्म के उदय से होने वाले जीव के संज्वलन, अहंकार, वंचना और मूर्च्छा रूप परिणाम क्रमशः क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । कषायमोहकर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष, जो सम्यक्त्व, देशविरति सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । अतएव ये कषाय कहे जाते हैं । १. क्रोध - क्रोध मोहकर्म के उदय से होने वाला, कृत्य और अकृत्य विवेक को हटाने वाला, संज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं । क्रोध से जीव जलता रहता है । २. मान - मान मोहकर्म के उदय से जाति, बल एवं वीर्य आदि गुणों में अहंकार बुद्धि रूप आत्मा के परिणाम को मान कहते हैं। मानी जीव अपने को सबसे बड़ा समझता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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