________________
१४० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व पाप का । परन्तु पाप के फल दुःख से वह घबराता है। बड़ी ही विचित्र बात है यह।
__ भगवान महावीर ने नव तत्वों में एक तत्व पाप को भी माना है । लेकिन पाप जानने के योग्य है, आचरण के योग्य नहीं। पाप को समझकर उसे छोड़ दो। जिसको छोड़ना है, उसे समझना भी जरूरी हो जाता है । अतः भगवान् ने पाप को हेय तत्व कहा है। इसके त्याग में ही जीव का कल्याण है।
पुण्य फूल है, पाप काँटा है । पुण्य सुख है, पाप दुःख है । पुण्य ऊपर उठाता है, पाप नीचे गिराता है। पुण्यवान् की जगत में प्रशंसा होती है, पापात्मा की निन्दा होती है । पुण्य से प्रियता प्राप्त होती है, पाप से अप्रियता।
पाप के भेद
द्वेष
१. अव्रत पाप के पाँच भेद१. प्राणातिपात
२. मषावाद ३. अदत्तादान
४. मैथुन ५. परिग्रह कषाय पाप के छह भेद१. क्रोध
२. मान ३. माया
४. लोभ ५. राग ३. वाणी के पाप के चार भेद१. कलह
२. अभ्याख्यान ३. पैशुन्य
४. पर-परिवाद ४. मन के पाप के तीन भेद१. रति-अरति
२. मायामृषा ३. मिथ्यादर्शन
१. प्राणातिपात-पाप के हेतुभूत अर्थात् कर्म बन्धन के कारणों को पापस्थानक कहा जाता है। उसके अष्टदश भेद हैं । उनमें प्रथम हिंसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org