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| पाप-तत्त्व
जीव के अशुभ योग से पाप की उत्पत्ति होती है । अशुभ योग पाप का कारण है। पाप का फल दुःख होता है। पाप का फल जीव को प्रतिकूल है, अनुकूल नहीं । पाप से जीव अधोगति में जाता है। पाप के कारण नरक गति तथा तिर्यंच गति प्राप्त होती है । जो आत्मा को पतन के गहन गर्त में डालता है, वह पाप है। अशुभ भाव से पाप होता है। पाप आत्मा को मलिन बनाता है। जैसे नूतन वसन धूलि आदि के संयोग से मलिन हो जाता है, वैसे ही पाप के संयोग से आत्मा मलिन हो जाता है । वस्त्र का प्रक्षालन करने से वस्त्र फिर स्वच्छ हो जाता है । जप एवं तप आदि क्रियाओं से पाप भी दूर हो जाता है, नष्ट हो जाता है।
____ अज्ञान, मोह और द्वेष आदि दूषित भावों से पाप उत्पन्न होता है । मन से दूसरों के प्रति द्वेष करने से पाप होता है । वचन से दूसरों की निंदा करने से पाप होता है। काय से दूसरों को पीड़ा देने से पाप होता है। कषाय भाव तीव्र होने से पाप का बन्ध हो जाता है । पाप का फल दुःख है । पाप से कभी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। पापी की संगति से अच्छा आदमी भी बुरा बन जाता है ।
दुनिया के सभी धर्मों ने पाप को बुरा कहा है । सब धर्मों के आचार्य पाप की निन्दा करते हैं। सब धर्मों के शास्त्र पाप को छोड़ने का उपदेश देते हैं। फिर भी संसार में पाप के काले बादल छाए हुए हैं। यह कितनी विचित्र बात है, कि मनुष्य जिसका फल चाहता है, उसे करता नहीं है। जिसका फल नहीं चाहता, उसे रात-दिन करता है। मनुष्य पुण्य का फल सुख चाहता है, लेकिन पुण्य का आचरण नहीं करता; आचरण करता है,
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