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सवर-तत्त्व
संवर शब्द जैन-दर्शन का एक विशिष्ट शब्द है। यह आस्रव का विरोधी तत्व है । संवर का अर्थ है-निरोध । बाहर से अन्दर आने वाली वस्तु को रोक देना।
संवर मोक्ष का हेतु है । मोक्ष का अनन्य साधन है। इसके अभाव में मोक्ष कथमपि सम्भव नहीं है। संसार और संसार के साधनों का निरोध संवर है । साधना का शिखर है ।
आस्रव का रुकना जाना ही संवर होता है। आत्मा में जिन कारणों से कर्मों का आस्रवन होता है, उन कारणों को दूर कर देने से जो कर्मों का आना बन्द हो जाता है, उसको संवर कहते हैं।
संवर के दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर। द्रव्य संवर क्या है ? पुद्गल मय कर्मों के आस्रव का रुक जाना।
भाव संवर क्या है ? कर्मों के आस्रव के कारणभूत राग-द्वेष भावों का रुक जाना।
__ तप भी मोक्ष का हेतु है। क्योंकि तप से कर्मों की निर्जरा होती है, और संवर भी होता है । तप को संवर का प्रधान कारण कहा गया है । तप का प्रधान फल है, पूर्व संचित कर्मों का क्षय होना ।
संवर का कारण क्या है ? गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र-ये सब ही संवर के कारण होते हैं । तप और ध्यान से भी संवर होता है । यह संवर मोक्ष का साधन है ।
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