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पुद्गल-द्रव्य | ६१
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है । सुन्दर स्त्री के सौन्दर्य को निहारना, खिले गुलाब की सुन्दरता को देखना आँख का स्वभाव है । रेडियो पर ब्राडकास्ट होने वाले गीतों की मधुर स्वर लहरी को सुनना कान का, श्रोत्र - इन्द्रिय का स्वभाव है । पुष्पों मधुर पराग से युक्त सुगन्ध को ग्रहण करना नाक का काम है । पदार्थों के मधुर तिक्त आदि स्वाद को चखना जिह्वा का स्वभाव है । और मृदुकठोर आदि पदार्थों का स्पर्श के द्वारा ज्ञान करना शरीर का, स्पर्श - इन्द्रिय का स्वभाव है । परन्तु, देखने, सुनने, सूंघने, चखने एवं स्पर्श करने मात्र से आँख, कान, नाक, जिह्वा एवं स्पर्श- इन्द्रिय को पाप-पुण्य नहीं बँधता | यदि इतने मात्र से पाप चिपकता हो, तब तो तेरहवें गुणस्थान स्थित वीतराग एवं सर्वज्ञ को भी पाप-पुण्य का बन्ध हुए बिना नहीं रहेगा, और कोई भी आत्मा संसार से अथवा पाप-पुण्य के बन्ध से मुक्त नहीं हो सकेगी । क्योंकि वीतराग भी संयोग अवस्था में इन्द्रियों से संयुक्त हैं और इन्द्रियाँ देखने-सुनने आदि का काम करती ही हैं, पर इतने मात्र से पाप-पुण्य का बन्ध नहीं होता । कारण स्पष्ट है, कि वे ज्ञाता एवं द्रष्टा बनकर देखते हैं, वे उन पदार्थों में आसक्त नहीं होते, उन पर राग-द्व ेष नहीं करते । जब इन्द्रियों द्वारा ग्रहीत रूप आदि में व्यक्ति आसक्त बनता है, अनुकूल रूप आदि पर अनुराग करता है और प्रतिकूल पर द्वेष करता है, तब पुण्य एवं पाप-कर्म का बन्ध होता है । शुभ भाव से पुण्य और अशुभ से पाप कर्म का बन्ध होता है । इसलिए कर्मों को, दोषों को ग्रहण करने वाली पार्थिव या भौतिक इन्द्रियाँ नहीं, उनके साथ संबद्ध Joint मनुष्य का राग-द्वेष युक्त मन है ।
कुछ विचारक -- जिन्हें स्व और पर के स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं है, सारा दोष इन्द्रियों पर डाल देते हैं । आँख ने सुन्दर रूप को देखा, तो उसके इस अपराध के लिए आँखों को ही फोड़ देते हैं । परन्तु इससे समस्या का समाधान नहीं होता । रात को सोते समय स्वप्न में वही रूप सामने आ धमकता है, और आँखों में ज्योति के न रहने पर भी व्यक्ति उससे प्यार-दुलार करता है, उस पर अनुराग रखता है या प्रतिकुल रूप आदि विषय दिखाई दिया, तो उन पर द्वेष करता है । इस प्रकार आँख आदि इन्द्रियों को नष्ट कर देने पर भी पाप पुण्य का बन्ध रुकता नहीं है । अतः जैन दर्शन समस्या का समाधान बाहर में परिलक्षित कारणों को पकड़कर नहीं करता प्रत्युत वह समस्या के मूल कारण को पकड़ता है। भगवान् महावीर ने कहा - इन्द्रियों को मारने से तुम पाप-पुण्य से मुक्त नहीं हो
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