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________________ ६० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व तो तर्क-युक्त है, न अनुभवगम्य है, और न विज्ञान की मान्यता से मेल खाती है । हम प्रत्यक्ष में देखते हैं, कि सीप के मुंह में पड़ा हुआ जल-कण चमकतादमकता पार्थिव मोती बन जाता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दोनों गैसों को मिला देने पर दो तरह की वायु के रूप में रहे हुए पार्थिव परमाणु जल के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। दो काष्ठ के पार्थिव टुकड़ों को परस्पर रगड़ने पर उनके घर्षण से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, और अग्नि से राख उत्पन्न होती है। अतः उनमें गुण-भेद के कारण जाति-भेद मान्य करके उनमें पृथक् द्रव्यत्व कैसे सिद्ध किया जा सकता? जैन-दर्शन ने समस्त पुद्गलों में पारस्परिक परिणमन देखकर-जैसे जल के परमाणुओं को मुक्ता के रूप में परिणत होते देखकर एक ही पुद्गल द्रव्य को स्वीकार किया, और सभी पुद्गलों को वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त माना । यह तो सम्भव हो सकता है कि पुद्गलों की अवस्था विशेष में कोई गुण प्रकट हो और कोई गुण प्रकट न हो पाए । जैसे अग्नि में रस, वायु में रूप, जल में गन्ध अप्रत्यक्ष रूप से रह सकता है, परन्तु उसका अभाव नहीं माना जा सकता। मुर्त द्रव्य के लिए यह एक सामान्य नियम है कि एक गुण जहाँ दिखाई देगा, वहाँ सभी गूण विद्यमान होंगे ही। जहाँ स्पर्श होगा, वहाँ वर्ण, गन्ध और रस भी उपलब्ध होंगे ही। विज्ञान ने भी इस सिद्धान्त को मान्य कर लिया है। इसलिए प्रारम्भ में विज्ञान ६२ मल पदार्थ या मल द्रव्य मानता था, परन्तु अब वह अणु Atom को ही मूलतत्व या मूलद्रव्य मानता है। और उसके संयोग-वियोग से विभिन्न प्रकार के पदार्थों एवं आकारों का निर्माण और विनाश होता है। परन्तु पदार्थों के आकारप्रकार एवं रूप-रंग आदि के बदलने पर भी अणु Atom का नाश नहीं होता। उसका अस्तित्व परिवर्तित अवस्था में भी बना रहता है। इसी कारण विज्ञान ने अपने प्रयोगों Experiments द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि मूल तत्व एकमात्र अणु ही है और उनके संयोग-वियोग से ही विभिन्न पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं। जैन-दर्शन ने इसे पुद्गल द्रव्य कहा है और अणु को ही शुद्ध पुद्गल द्रव्य माना है । पुद्गल और पाप-पुण्य यह मैं बता चुका हूँ कि शरीर, इन्द्रियें एवं मन--ये पुद्गल से बने हैं । ये स्वयं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त हैं, अतः इनको ग्रहण करना . इनका स्वभाव है। आँख के सामने कोई रूप आता है, तो व , उसे देखती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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