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________________ पुद्गल-द्रव्य | ५६ देव या अन्य गति की पर्याय को प्राप्त किया। इसमें न तो पुद्गल द्रव्य ही छूटा और न उसकी पर्याय ही छूटी। अतः जब तक मोह का उदय है, तब तक आत्मा पुद्गल को छोड़ नहीं सकता, उससे मुक्त हो नहीं सकता। क्योंकि जब हमें अनुकूल पुद्गलों का संयोग मिलता है, तब उन पर राग होता है, उनके प्रति ममता होती है और प्रतिकूल पदार्थो का संयोग मिलने पर उनके प्रति द्वष उत्पन्न होता है, राग-द्वेष करना यही गलत रास्ता (Wrong-way) है। पुद्गल का लक्षण पुद्गल का सामान्य लक्षण है-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त होना । पुद्गल मूर्त है, रूपी है, आकार-प्रकार वाला है। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है-"पुद्गल पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श- इन बीस गुणों से युक्त है ।" पाँच वर्ण इस प्रकार बताएनील (Blue) पीत (Yellow) शुक्ल (White) कृष्ण (Black) और लाल (Red) । गन्ध दो प्रकार की है-सुगन्ध (Good smell)और दुर्गन्ध (Bad smell)। रस पाँच प्रकार का कहा है-तिक्त Bitter कटुक Acidic अम्ल-खट्टा Sour मधुर Sweet कषाय Astringent । स्पर्श के आठ भेद बताए हैं-मृदु Soft कठिन Hard गुरु Heavy लघु Light शीत Cold उष्ण Hot स्निग्ध Smooth और रूक्ष Rough । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पुद्गल के इन चार मूलगुणों के बीस भेद बताए हैं, परन्तु इनके उपभेद करें तो संख्यात Finite असंख्यात Infinite और अनन्त Transfinite भेद होते हैं । जैन-दर्शन द्वारा मान्य स्पर्श के आठ गुणों को आधुनिक विज्ञान में भौतिक पदार्थ के चार गुणों में मान लिया है-Scale of Hardness मृदु-कठिन, Density गुरु-लघु, Temperature शीत-उष्ण और Crystalline structure स्निग्ध-रूक्ष । इस प्रकार आज का भौतिक-विज्ञान पदार्थ matter में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श मानता है । वैशेषिक-दर्शन भी जड़ पदार्थों में इन गुणों को मानता है, परंतु वह पृथ्वी के परमाणुओं में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारों गुण, जल के परमाणओं में रूप, रस और स्पर्श तीन गुण, अग्नि के परमाणओं में रूप और स्पर्श दो गुण और वायु में केवल स्पर्श एक गुण मानता है। इस प्रकार वैशेषिक-दर्शन गुणभेद मानकर चारों को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। उसका मानना है कि जल-कण के परमाणु अलग हैं, वे जल के रूप में ही रहते हैं । उसी प्रकार पृथ्वी, अग्नि और वायु के परमाणु भी पृथक-पृथक हैं, और उनसे तद् प पदार्थो की उत्पत्ति होती है। परन्तु, यह मान्यता न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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