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५८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व
स्पन्दन होने के कारण कर्म-पुद्गल आकर्षित होकर आयेंगे अवश्य, परन्तु स्वभाव में परिणमन होने के कारण उनका बन्ध नहीं होगा । और जो पहले बंध चुके हैं, वे भी अपने काल के परिपक्व होने पर उदय में आकर आत्मा से अलग हो जायेंगे ।
अभिप्राय यह है, कि पुद्गलों को छोड़ना-पकड़ना नहीं है, प्रत्युत विभाव से हटकर स्वभाव में लौटना है और स्वभाव में ही स्थित रहना है। फिर पुद्गल स्वयं ही छूट जाएँगे, बिखर जायेंगे । इसका यह अर्थ नहीं है कि पुद्गल का नाश हो जाएगा।
पुद्गल अनन्त-काल से इस विश्व में हैं, इस लोक में हैं और अनन्त काल तक रहेंगे, न कभी उनका अभाव रहा है और न कभी रहेगा। इसी तरह आत्मा भी अनन्त-काल से है और अनन्त-काल तक रहेगा। जैनदर्शन यह मानता है, कि सिद्धशिला से, ऊर्ध्व-लोक के अग्रभाग में मुक्त जीव स्व-स्वरूप में स्थित हैं, और वहाँ पुद्गल भी हैं । सिद्धशिला पुद्गलों के स्कन्ध से बनी है । सिद्धों के चारों ओर पुद्गल हैं, फिर भी न तो पुद्गल उस शुद्ध आत्मा से चिपकता है, और न आत्मा पुद्गलों को पकड़ती है । यदि पुद्गलों को पकड़ने की शक्ति आत्मा में है, तो सिद्धों में तो अनन्त आत्म-शक्ति है, फिर वे पुदगलों को क्यों नहीं पकडते ? क्योंकि उनमें न राग है, न द्वष है, वे केवल ज्ञाता एवं दृष्टा हैं । इसका अभिप्राय यह रहा, कि आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होने पर अथवा स्वभाव में परिणमन करने पर पुद्गलों से आबद्ध नहीं होता । अतः पुद्गल को छोड़ना नहीं है, समझना है; छोड़ना है, मुक्त होना है, तो राग-द्वोष से, मोह से, कषायों से एवं विभावों से । विभाव से हटकर स्वभाव में स्थित होना, वीतराग भाव में परिणमन करना ही कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों से मुक्त-उन्मुक्त होना है
और अपनी शुद्ध-विशुद्ध एवं परम शुद्ध सिद्ध-पर्याय को प्रकट करना है। वास्तव में सिद्ध-पर्याय को–जो आत्मा का शुद्ध स्वभाव है और आत्मा में ही सन्निहित है, प्रकट करना ही सच्चे अर्थ में पुद्गल को छोड़ना है अथवा कहना यों चाहिए कि तब पुद्गल स्वतः छूट जाता है । यथार्थ में छूट जाने का अर्थ है-आत्मा उसे पुनः ग्रहण न करे । लेकिन हम छोड़ते क्या हैं ? मृत्यु के समय शरीर को छोड़ते हैं, परन्तु इस भव के शरीर को छोड़ने के पूर्व ही आगामी भव के शरीर को रिजर्व कर लेते हैं (Reservation of the house of next life) । हुआ क्या ? मानव-पर्याय को छोड़ा और
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