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________________ पुद्गल-द्रव्य | ५७ कहकर, उसे समझने का उपदेश दिया है। जब तक आबद्ध कर्म शेष हैं, तब तक कर्म के उदय से शुभाशुभ पदार्थों का जो योग मिलता है, उसका वेदन एवं उपभोग तो करना ही पड़ेगा। इसलिए साधक को अनासक्तभाव से जीवन यापन करना चाहिए। अध्यात्मयोगी श्रीमद् रायचन्द्र ने भी कहा है ----'आत्म-ज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय-प्रयोग ।' कर्म के उदय में आने पर अच्छे या बुरे, कम या अधिक -जो साधन मिलते हैं, आत्मज्ञानी साधक को उनमें राग-द्वेष न करके केवल दृप्टा बनकर रहना चाहिए । व्यक्ति को यह समझ कर विचरण करना चाहिए-मेरे कर्मोदय के कारण मुझे ये साधन मिले हैं। वीतराग एवं सर्वज्ञ ने जो कुछ देखा है, और जिसे रूप में देखा है, वह उसी समय, उसी स्थान पर और उसी रूप में घटित होकर रहेगा। क्योंकि भोगावली कर्म को भोगे बिना कितना ही विशिष्ट साधक क्यों न हो, कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। अतः न छोड़ना है और न ग्रहण करना है, पर सर्व-प्रथम उसे समझना है । आत्मा भी है, और उसके अतिरिक्त जो तत्व है, वह भी विश्व में विद्यमान है। उसे जैन-दर्शन में पुद्गल कहा है । आत्मा और पुद्गल-ये दो द्रव्य षड्द्रव्यों में मुख्य द्रव्य हैं। दोनों द्रव्य स्वतन्त्र हैं और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न स्वभाव के हैं । दोनों की परिणति या परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में होता है। आत्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध होने पर भी आत्मा अपने स्वरूप से भिन्न पुद्गल की पर्यायों में परिणमन नहीं करता, और पुद्गल का परिणमन आत्म-पर्यायों में नहीं होता। पुद्गल आत्मा को तो क्या, उसके एक भी प्रदेश को अपने रूप में परिवर्तित नहीं कर सकता और आत्मा पुद्गल के एक भी परमाणु को चेतन नहीं बना सकता । फिर यह सोचने-विचारने का चिन्तन करने का विषय है, कि वह पुद्गल को कैसे पकड़ सकता है ? वास्तव में आत्मा ने पुद्गल को पकड़ा ही नहीं है। जब उसने पकड़ा ही नहीं है, तब छोड़ने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? जब आत्मा ने पुद्गल को पकड़ा नहीं है, तब वह उनसे आबद्ध क्यों है ? । इस प्रश्न का समाधान यह है, कि संसार अवस्था में आत्मा में राग-द्वेष, मोह आदि विभाव भी हैं। आत्मा से सम्बद्ध योगों में जब स्पन्दन होता है, तब कार्मण वर्गणा के पुद्गल उससे आकर्षित होकर आते हैं, उस समय जीव उसमें राग-द्वेष एवं मोह करता है, तो वे पुद्गल कर्म रूप से आत्मा के साथ आबद्ध होते हैं । परन्तु जो साधक वीतराग-भाव में स्थित रहता है, मात्र ज्ञाता एवं दृष्टा बनकर रहता है, उस समय योगों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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