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५६ ! जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व
इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-- तुम पदार्थों को छोड़ने, ग्रहण करने तथा पकड़ने के चक्कर में मत पड़ो। उनके यथार्थ स्वरूप को समझने का प्रयत्न करो। छोड़ने एवं पकड़ने में ही व्यस्त रहे, तो तुम्हारे मन में उनके प्रति राग-द्वेष पैदा होगा। अतः उनके स्वरूप को, उनके स्वभाव को समझो और स्वयं सिर्फ ज्ञाता एवं दृष्टा बनकर रहो।
____ मैं आगरा से सन् ६६ में कलकत्ता वर्षावास करने जा रहा था। उस समय रास्ते में सारनाथ ठहरा : वहाँ कुछ भिक्ष एवं भिक्षणियों से मिला, उनसे विचार-चर्चा भी हुई । मैंने एक भिक्षु से पूछा, क्या भगवान् बुद्ध आपके जीवन के कण-कण में समा गये हैं ? उसने कहा-"ऐसा कुछ नहीं है। अभी तो मैंने त्रिपिटकों का एवं बौद्ध-दर्शन का पूरा अध्ययन हो नहीं किया है ।" तब फिर आने भिक्षु-धर्म की दीक्षा कैसे ली ? उसका स्पष्ट उत्तर मिला, कि मेरा एक लड़की के साथ प्रेम (Love) था। उसने मुझे छोड़ कर दूसरे लड़के के साथ शादी कर ली । इसका मेरे मन पर गहरा आघात लगा, संसार के लोगों से घृणा हो गई और मैं भिक्ष बन गया। इसी प्रकार एक बीस-बावीस वर्ष की भिक्षणी से पहला प्रश्न अध्ययन के सम्बन्ध में पूछा, तो उसने बताया कि अभी तो अध्ययन प्रारम्भ ही किया है, मुझे अभी दीक्षा के लिए छह महीने ही तो हुए हैं । मैंने जब यह पूछा कि दीक्षा की भावना मन में कैसे जगी? इसके उत्तर में उसने बताया, कि मेरा मेरे पति के प्रति विशेष अनुराग था। पति भी मुझे बहुत प्यार एवं स्नेह करता था । परन्तु पति की मृत्यु हो गई। इससे मुझे घर में एवं बाहर पति के बिना सब सूना-सूना लगने लगा, और भिक्षभिक्षुणियों के सम्पर्क से भिक्षुणी बनने की बात मेरे सामने आई । अन्य कोई मार्ग सामने नहीं होने से मैंने इस पथ को स्वीकार कर लिया । इसका अर्थ है, वैराग्य की ज्योति अन्तर्जीवन में जगी नहीं, वैराग्य का, त्याग का एवं आत्म-साधना का स्रोत अन्दर से प्रस्फुटित नहीं हुआ। प्रत्युत वैराग्य का बोझ ऊपर से लाद लिया गया। लादा हुआ वैराग्य यथार्थ में वैराग्य नहीं है । वह तो सहज भाव से आना चाहिए । श्रीमद् रायचन्द्र ने आत्म-सिद्धि में कहा है-जिसके चित्त में, मन में त्यागवैराग्य नहीं है, उसे सम्यक्-ज्ञान नहीं हो सकता
"त्याग-विराग न चित्तमाँ, थाय न तेने ज्ञान ।" आत्मा और पुद्गल
भगवान् महावीर ने पुद्गल को छोड़ने और पकड़ने की बात न
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