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________________ पुद्गल-द्रव्य | ५५ और योगों-मन, वचन और काय-योग से युक्त है, तब तक वह एक क्षण के लिए भी पुद्गलों के बिना रह नहीं सकता। आपकी और हमारी तो बात ही क्या ? तेरहवें गुणस्थान में स्थित तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु भी देवों द्वारा रचित समवसरण में स्वर्ण के सिंहासन पर बैठते हैं, गन्धकुटी में ठहरते हैं, आहार-निहार करते हैं, उपदेश देते हैं । वे भी पुद्गलों को ग्रहण करते एवं छोड़ते हैं। चौदहवें गूणस्थान में भी सर्वज्ञ जब मन, वचन और काय शरीर-इन तीनों योगों का निरोध करके समस्त कर्म एवं कर्मजन्य साधनों से मुक्त होकर और एक समय की ऊर्ध्वगति करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थिर होते हैं, अथवा चौहदवें गुणस्थान को लांघकर सिद्धत्व पर्याय को प्रकट करते हैं, तब वे गुणस्थानातीत अवस्था में पद्गलों से मुक्त होते हैं। अभिप्राय यह है, कि संसार अवस्था में जीव पुद्गल से रहित नहीं है। पुद्गल जो इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, और सर्बज्ञ भी जिससे मुक्त नहीं है, पाँचवें एवं छठे गुणस्थान में रहने वाले व्यक्ति उसे छोड़ने की बात कहते हैं और उसकी निन्दा-बुराई करते हैं, उससे घृणा करते हैं, यह देखकर मुझे हंसी आती है। वीतराग ने कहीं भी पुद्गल का तिरस्कार नहीं किया, उसकी निन्दा, बुराई नहीं की । परन्तु मध्यकाल के सन्तों ने अपने उपदेश में पद्गलों को छोड़ने का कहा, उनका तिरस्कार करने का कहा और उन्हें नष्ट करने का कहा । इसका परिणाम यह रहा, कि हमने पुद्गल से जितनी घृणा की, जितना उसका तिरस्कार किया, जितनी उसकी अवमानना की, उतने ही हम उससे अधिक चिपकते रहे। पद्गल को छोड़ने की बात कहना जितना सरल है, उसे छोड़ना उतना सरल नहीं है । वह एक ऐसी शक्ति (Energy) है, जिसे छोड़ने की बात करना एक प्रकार का दम्भ है । क्योंकि इससे मन में अहंकार जागृत होता है। मुझे एक सन्त मिले । उन्होंने बताया-मैंने एक-डेढ लाख की सम्पत्ति को छोड़कर दीक्षा ली है। मैंने पूछा- क्या वह सम्पत्ति आपकी थी? यदि आप अभी भी यह मानते हैं कि मैं छोड़कर आया हूँ, वह सम्पत्ति मेरी थी। तो आपने छोड़ा क्या ? उसका अहंकार और ममकार अभी भी आपके मन में स्थित है और वास्तव में पदार्थों का या उनके त्याग का अहंकार ही ससार में परिभ्रमण करने का, पुद्गलों से आबद्ध होने का कारण है । जो वस्तु मेरी नहीं,उसमें मेरेपन की कल्पना करके उसके छोड़ने या पकड़ने की बात करना अहंकार के सिवा और क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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