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________________ ६२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व सकते, परन्तु राग-द्वष का परित्याग करके ही पाप-पुण्य के बन्धन से मुक्त हो सकते हो । भगवान् महावीर के सामने इन्द्र आया, उसने भगवान् को वन्दन किया, उनकी स्तुति की, तब भी उस पर अनुराग नहीं किया। और जब ग्वाले ने आकर भगवान् के कानों में कीले ठोके, तब भी उस पर द्वोष नहीं किया। अनुकूल एवं प्रतिकूल-दोनों प्रकार के संयोगों में सम बने रहना ही पाप-पुण्य से मुक्त होना है। वीतराग किसी को न कुछ देते हैं, और न किसी से कुछ लेते हैं । वे ज्ञान-विज्ञान भी दे नहीं सकते। वे एक ही बात कहते हैं, कि जो ज्ञान मेरे में है, वही अनन्त-ज्ञान-ज्योति तुम्हारे में है । तुम उसे समझने का प्रयत्न करो। अपना एवं पुद्गल का जो स्वरूप है, उसे तुम बदल नहीं सकते । उसका परिणमन जिस रूप में होना है, तद्रप ही होगा, उसमें परिवर्तन करने की शक्ति एवं क्षमता किसी में नहीं है । अतः उसे बदलने का नहीं, समझने का और अपने आप में स्थित रह कर द्रष्टा एवं ज्ञाता बनकर रहने का प्रयत्न करो। फिर भले ही कितना ही पुद्गल तुम्हारे ऊपर-नीचे दाये-बाँये और आगे-पीछे क्यों न रहे, बन्ध का कारण नहीं बनेगा । अतः पाप-पण्य का कारण हमारे राग-द्वेषात्मक विकल्प ही हैं। जब विकल्प परिसमाप्त हो जायेंगे, निर्विकल्प भाव से कार्य करेंगे अथवा गीता की भाषा में अनासक्त होकर कर्म करेंगे, तब बन्ध नहीं होगा । जैन-दर्शन एव जैन-आगमों की भाषा में वीतराग को कर्म का बंध नहीं होता और गीता की भाषा में स्थित-प्रज्ञ कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि वीतराग वह है-जो राग-द्वेष आदि विकल्पों से मुक्त है और स्थित-प्रज्ञ वह है-जो अपने ज्ञान स्वरूप में ही स्थित रहता है। अतः दोनों विकल्पों से रहित हैं। एक कहानी मुझे एक छोटी,सी कहानी याद आ रही है । प्राचीन काल में एक राजा रात को वेश बदलकर अपने नगर में घूमता था । वह यह जानने का प्रयत्न करता था कि मेरे राज्य में कोई व्यक्ति दुःखी एवं पीड़ित तो नहीं है । एक दिन रात को राजा एक संकरी गली में से जा रहा था, और उधर सामने से एक संन्यासी भी आ रहा था । अंधेरा होने के कारण दोनों परस्पर टकरा गए । राजा मोटा-ताजा एवं सशक्त था और योगी दुर्बल एवं कमजोर था। इसलिए राजा के धक्के से वह गिर गया। इस टकराहट में राजा का कुछ बिगड़ा नहीं, चोट बेचारे योगी को लगी। पर राजा को एकदम आवेश आ गया और कठोर भाषा के रूप में उसका क्रोध प्रकट भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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