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पुद्गल-द्रव्य | ६३
हो गया। राजा ने कड़ककर पूछा-कौन है ? संन्यासी ने मधुर स्वर में प्रत्युत्तर देते हुए इसी बात को दोहराया कि मैं भी जानना चाहता हूँ-तू कौन है ? इस उत्तर को सुनकर राजा का पारा और तेज हो गया । उसने कर्कश स्वर में कहा-अरे गधे ! मेरी बात क्या पूछता है ? मेरा परिचय बहत बड़ा है। पर तू क्यों नहीं बताता कि तु कौन है ? योगी ने शान्त स्वर में कहा- मुझे तुम्हारा परिचय मिल गया। मैं एक सम्राट हूँ, शहंशाह हूँ । तू कैसा सम्राट है ? तेरे सिर पर न तो मुकुट है और न राजशाही पोशाक ही है। राजा एवं सम्राट तो मैं हैं। योगी ने कहा-तू भ्रम में है। जो व्यक्ति अपने आप पर शासन करने में समर्थ नहीं है, रागद्वेष एवं कषायों को अपने नियन्त्रण में रखने में सक्षम नहीं है, वह कैसा सम्राट ? यदि तुम कषायों के गुलाम नहीं होते, अपने स्वभाव में स्थित होते, तो ऐसी भाषा का कदापि प्रयोग नहीं करते।
भगवान महावीर आपको यही बता रहे हैं-तुम भिखारी नहीं, सम्राट हो । फिर भी यदि आपका भिखारीपन नहीं मिटा, विषय-कषाय की गुलामी नहीं छूटी, तो आत्मा का विकास कैसे होगा ? इसलिए अपने एवं पुद्गल के स्वरूप को समझो और अपने सम्राट बनने का प्रयत्न करो। फिर आपको पुद्गल को छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह स्वतः ही छूट जायेगा, आत्म-प्रदेशों से अलग हो जायेगा।
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