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| पुद्गल का स्वरूप
पुद्गल का अर्थ
पुद्गल एक अचेतन जड़ द्रव्य है, एक शक्ति (Erergy) है । जड़पदार्थों ( Matter) के लिए जैन-आगमों में पुद्गल शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध है । हमारे पड़ोसी बौद्ध-धर्म के शास्त्रों-त्रिपिटकों में भी पुद्गल शब्द का प्रयोग मिलता है। दोनों शास्त्रों में शब्द साम्यता है। परन्तु, दोनों के अर्थ में अन्तर है । त्रिपिटकों एवं अन्य बौद्ध-ग्रन्थों में पुद्गल शब्द का प्रयोग आत्मा, चेतन एवं जीव के अर्थ में हुआ है। जैन-आगमों एवं अन्य ग्रन्थों में प्रायः पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव, चेतन एवं आत्मा से सर्वथा भिन्न अजीव, जड़ एवं भौतिक-पदार्थों के लिए किया गया है। जैनपरम्परा में पुद्गल शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया है, सांख्यदर्शन में उसके लिए प्रकृति शब्द का, वैशेषिक-दर्शन में परमाण शब्द का, और चार्वाक-दर्शन में भूत शब्द का प्रयोग मिलता है। परन्तु, पुद्गल शब्द में जो गांभीर्य, विशालता एवं व्यापकता है, वह अन्य शब्दों में नहीं है। भगवती सूत्र में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया था, कि बौद्ध-धर्म के प्ररूपक पुद्गल शब्द का जीव के अर्थ में प्रयोग करते हैं, क्या यह अर्थ आपको अभीष्ट है ? भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि के अनुसार स्याद्वाद की भाषा में कहा-हे गौतम ! यथार्थ में पुद्गल आत्मा से भिन्न है, वह चेतन-द्रव्य नहीं है। परन्तु, संसार अवस्था में जीव पुद्गलों से संबद्ध है। जैसे आग में डालने पर लोहे का गोला अग्नि तो नहीं बन जाता, परन्तु आग के गोले-जैसा परिलक्षित होता है। क्योंकि अग्नि के परमाणु लोहे के गोले के परमाणुओं के साथ घुल-मिल जाते हैं । उसी तरह पुद्गल भी जीव के साथ मिला हुआ-सा लगता है । इस अपेक्षा से
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