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पुद्गल का स्वरूप | ६५
शुद्ध
व्यवहार नय से संसार अवस्था में जीव के लिए पुद्गल शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है । संसार में यह आत्मा चार गति - नरक - गति, तिर्यञ्च-गति, मनुष्य - गति और देव-गति, और चौरासी लाख जीवयोनियों में से किसी भी गति एवं योनि में रहे, वहाँ एक भी गति एवं एक भी योनि ऐसी नहीं मिलेगी, जहाँ चेतन तो रहे, परन्तु उसके साथ पुद्गल न रहे । संसार-पर्याय में पुद्गल से रहित शुद्ध चेतन की, आत्मा की कल्पना ही नहीं की जा सकती । ऊर्ध्व - लोक के अग्रभाग में एक ऐसा स्थान है, जहाँ सिद्ध पर्याय में स्थित जीव शुद्ध चेतन एवं शुद्ध आत्म-भाव में स्थित रहते हैं । अतः मुक्त जीव के लिए पुद्गल शब्द का कदापि प्रयोग नहीं किया जा सकता । निश्चयदृष्टि से पुद्गल, पुद्गल है और जीव, जीव है । दोनों का अस्तित्व अनन्त - काल से है और अनन्त - काल तक रहेगा, इसमें सन्देह नहीं है । परन्तु अनन्त काल से जीव और पुद्गल साथ-साथ रहने पर भी एक-दूसरे से न मिले हैं और न कभी मिल पाएँगे । संसार अवस्था में दोनों का साथ तो अनन्त काल से है, परन्तु भविष्य में अनन्तकाल तक साथ बना ही रहेगा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए निश्चय नय की अपेक्षा से साथ-साथ रहने पर भी दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं और दोनों का परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में ही होता है। पुद्गल का परिणमन पुद्गल की पर्यायों में ही होता है, जीव की चेतन पर्यायों में नहीं । इसी प्रकार जीव का परिणमन जीव की पर्यायों में ही होता है, पुद्गल की जड़ पर्यायों में नहीं ।
स्कन्ध और परमाणु
आगम में पुद्गल के अनेक भेद किए हैं । आचार्य उमास्वाति एवं आचार्य कुन्दकुन्द ने भी अपने ग्रन्थों में पुद्गल के अनेक भेद-उपभेद करके उसकी व्याख्या की है । आगम में एवं आचार्यों ने पुद्गल को चार भागों में विभक्त किया है - स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । अनन्त अनन्त परमाणुओं के मिलन से बने हुए पदार्थ को स्कन्ध कहा है । उसके आधे हिस्से को देश और उसके चतुर्थांश या उससे कम को प्रदेश कहा है। देश और प्रदेश स्कन्ध ही कल्पित किए हैं, स्वतन्त्र भेद के रूप में नहीं । अतः मुख्य भेद दो ही हैं- स्कन्ध और परमाणु । आप परमाणुओं से निर्मित जिन पदार्थों को देख रहे हैं, सुन रहे हैं, सूंघ रहे हैं, चख रहे हैं, स्पर्श कर रहे हैं, वे सब स्कन्ध हैं । जिन पदार्थों को किसी भी इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किया जा
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