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________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | २५ धर्म और अधर्म-द्रव्य के गुण मैं आपको पहले बता चुका हूँ, कि जीव और पुद्गल में स्वाभाविक गति करने की एवं ठहरने की शक्ति है परन्तु गति करते समय एवं ठहरते समय उनको बाह्य निमित्त की आवश्यकता रहती है। दूसरे द्रव्य की सहायता के बिना कोई भी पदार्थ न तो गति कर सकता है और न कहीं ठहर सकता है। इसलिए पदार्थ की गति में सहायक द्रव्य को धर्म और ठहरने में सहायक द्रव्य को अधर्म कहा है। यहाँ धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य और पाप अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त भाव या कार्य नहीं, परन्त दो स्वतन्त्र अखण्ड द्रव्य हैं, जो क्रमशः गति और स्थिति में सहायक होते हैं । धर्म-शास्त्र एवं नीति-शास्त्र में पुण्य एवं पाप के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया गया है, परन्तु यहाँ इन दोनों का एक शक्ति के रूप में प्रयोग किया गया है । धर्म-द्रव्य न तो स्वयं गति-शील है और न वह दूसरे पदार्थों को गति देता है, तथा न गति करने की प्रेरणा देता है। वह स्वयं निष्क्रिय है, रूप रहित है, एक है, अखण्ड है, और लोकव्यापी है। उसका गुण एवं स्वभाव यह है, कि जब जीव और पुद्गल गति करते हैं, तब वह उसमें सहायक होता है। जैसे मछली में चलने की एवं तैरने की शक्ति स्वाभाविक है, परन्तु उसे अपनी शक्ति को क्रियान्वित करने के लिए पानी के सहयोग की आवश्यकता है। वह पानी में ही चल सकती है, तैर सकती है, ऊपर नीचे आ-जा सकती है, दाँये-बाँये जिधर चाहे उधर दौड़ सकती है, परन्तु उसे पानी से बाहर निकाल कर धरती पर ही नहीं, स्फटिक के फर्श पर भी रख दिया जाये, तो वह तड़पती रहेगी, पर एक इंच भी चल नहीं सकेगी। इसी प्रकार धर्म-द्रव्य के अभाव में न तो जीव ही गति कर सकता है, और न पुद्गल हा । अलोक में धर्म-द्रव्य का अभाव है, तो वहाँ जीव एवं पुद्गल का भी अभाव है। अधर्म-द्रव्य जीव और पुद्गल के ठहरने में निमित्त कारण है, सहायक-द्रव्य है । जैसे यात्रो यात्रा करते-करते थक जाता है, धूप एवं गर्मी से परेशान हो जाता है, तब रास्ते पर सघन छायादार वृक्ष को देखता है, और उसकी शीतल छाया में बैठ जाता है। वृक्ष न तो यात्री को बैठने का निमन्त्रण देता है, और न जबरदस्तो पकड़कर बैठाता ही है। यात्री स्वयं ही शीतल छाया को देखकर अपनो थकान और गर्मी को दूर करने के लिए अपनी यात्रा को स्थगित करके वृक्ष के नीचे बैठने का विचार करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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