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________________ २४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उसे invisible agency अदृश्य या आकार रहित साधन मानता था। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने गुरुत्व-आकर्षण को आकार रहित और निष्क्रिय (Inactive) माध्यम माना है। Invisible के साथ Inactive को जोडकर आइन्स्टीन गुरुत्व-आकर्षण के सिद्धान्त की मान्यता को जैन-दर्शन द्वारा मान्य अधर्म-द्रव्य की व्याख्या के निकट ले आये हैं। प्रो० जी० आर० जैन के शब्दों में "जैन-दर्शन द्वारा अधर्म-द्रव्य के सम्बन्ध में प्रतिपादित सिद्धान्त की विजय है, कि विज्ञान (Science) ने विश्व की स्थिरता में अदृश्य एवं निष्क्रिय गरुत्व-आकर्षण (Gravitation) की शक्ति की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है, अथवा उसे स्थिरता में माध्यम के रूप में स्वयं सिद्ध प्रमाण मान लिया है। आइन्स्टीन के पूर्व के वैज्ञानिक गरुत्व-आकर्षण के सिद्धान्त को सक्रिय-साधन मानते थे। इस मान्यता को आइन्स्टीन ने पूर्णतः बदल दिया है, अथवा उसे निष्क्रिय साधन मान लिया है। अब गरुत्व-आकर्षण को पदार्थों के स्थिर होने में सहायक या उपकारी कारण अथवा माध्यम (Auxiliary Cause) मान लिया गया और उसे निष्क्रिय, अदृश्य एवं आकार रहित माना। वर्तमान में वैज्ञानिकों द्वारा मान्य गुरुत्व-आकर्षण की व्याख्या प्रायः जैन-दर्शन द्वारा स्वीकृत अधर्म-द्रव्य से मिलती है।" इस प्रकार हमने देखा कि षड्-द्रव्य में दो द्रव्य ऐसे हैं, जो लोक और अलोक की सीमा को विभाजित करते हैं। इस लोक में, विश्व में, जहाँ तक धर्म-द्रव्य (Ether) और अधर्म-द्रव्य (Gravitation-force) हैं, वहीं तक विश्व है, लोक है और वहीं तक जीव और पुद्गल (Soul and Matter) का अस्तित्व है, और वहीं तक काल का प्रभाव पड़ता है, अथवा यों कहिए, कि जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहीं तक जीव, पुद्गल और काल-ये तीनों द्रव्य हैं, और उतने ही भाग को लोक-आकाश (Finite-space) कहते हैं। उसके आगे आकाश के अतिरिक्त अन्य एक भी द्रव्य नहीं है, क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्म-द्रव्य-जो गति और स्थिरता में माध्यम है, का अस्तित्व नहीं है। अतः वहाँ आकाश ही आकाश है, और वह अनन्त है। इसको जैन-दर्शन में अलोक, अलोक-आकाश अथवा अनन्त-आकाश (Infinite-space) कहा है। 1. Cosmology : Old and New. P. 36-44. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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