________________
२६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
और वह तुरन्त पथ को छोड़कर वृक्ष के नीचे आकर बैठ जाता है । उस समय जैसे वृक्ष उसके बैठने में सहायक होता है, उसी प्रकार अधर्म-द्रव्य जब जीव और पुद्गल चलते-चलते ठहरते हैं, तब वह उनके ठहरने में सहायक (Helper) होता है। उसके माध्यम से जीव और पुद्गल ठहर सकते हैं।
__ इस प्रकार धर्म और अधर्म-दोनों द्रव्य स्वयं न तो चलने की क्रिया करते हैं और न ठहरने की, परन्तु चलने और ठहरने वाले द्रव्यों के सहायक (Helper) बनते हैं। जब हम बोलते हैं, तब हमारे शब्द सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं। जब शब्द गति करते हैं, लोक में फैलते हैं, तब धर्म-द्रव्य उनके फैलने में (Help) सहायता करता है । धर्म-द्रव्य लोक तक सीमित है, इसलिए शब्द की गति करने की अपरिमित शक्ति होने पर भी वह लोक के बाहर नहीं जा सकता, क्योंकि वहाँ उसके फैलने में Helper (सहायक) द्रव्य नहीं है। ____ मैंने अभी आप से कहा था, कि सभी द्रव्य अपने आप में स्वतन्त्र हैं, और एक ही आकाश के प्रदेशों पर रहते हुए भी एक-दूसरे में मिलते नहीं, और न कभी अपने स्वभाव एवं गुणों का परित्याग करते हैं। एक द्रव्य तो दूसरे द्रव्य में परिणत नहीं होता, परन्तु एक द्रव्य के अनन्त गुण हैं, और एक-एक गुण की अनन्त पर्यायें हैं, और अनन्त गुणों की अनन्त-अनन्त पर्यायें हैं। वे सभी पर्यायें अपने आप में स्वतन्त्र हैं, एक द्रव्य की अनन्तअनन्त पर्यायें भी अपने से भिन्न पर्याय में नहीं मिलती। इतना होने पर भी एक-द्रव्य दूसरे द्रव्य का सहायक होता है, और उस पर उपकार करता है। जीव का स्वरूप अन्य द्रव्यों से भिन्न है, और वह अन्य द्रव्यों से सर्वथा भिन्न है। फिर भी वह अन्य द्रव्यों की सहायता की अपेक्षा रखता है। आकाश में वह अवकाश पाता है, धर्म-द्रव्य की सहायता से वह गति करता है, और अधर्म-द्रव्य के कारण वह स्थित होता है ।
अस्तु, निश्चय नय की दृष्टि से जीव अथवा आत्मा अपने स्वरूप में ही अवकाश पाता है, और अपने स्वभाव में ही गति करता है, रमण करता है, तथा अपने स्वभाव में ही स्थिर होता है, वह तीनों कालों में अपने स्वभाव में बना रहता है । परन्तु, बाहर में संसारी आत्मा ही नहीं, मुक्त आत्मा भी जिस स्थान पर स्थित है, वहाँ आकाश-प्रदेशों को घेरता ही है, मुक्त होते समय लोक के अग्रभाग तक गति करके पहुँचता है, और उस समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org