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१२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उत्पन्न होता है । यह शरीर मनुष्य, पशु और पक्षी आदि के होता है । यह अत्यन्त स्थूल शरीर है। वेदान्त एवं सांख्य दर्शन में इसको स्थूल शरीर कहा है। न्याय दर्शन में इसको पञ्चभूतात्मक कहा गया है । चरक एवं सुश्र त में इसको सप्त धातुमय शरीर कहा गया है। वैक्रियिक शरीर वह है, जो उपपात-जन्म से उत्पन्न होता है। यह शरीर देवों के और नारकों के होता है। वैक्रियिक शरीर लब्धि प्राप्त भी होता है, जो वैक्रिय लब्धिधर व्यक्ति विशेष को ही होता है । योनि और उसके भेद
जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं । अथवा जिस स्थान विशेष पर जीव उत्पन्न होते हैं, उसे योनि कहा जाता है। योनि नव प्रकार की है- सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत।
योनि और जन्म में अन्तर है। क्या अन्तर है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि योनि और जन्म में आधार तथा आधेय का अन्तर है। योनि आधार है, और जन्म आधेय है। यही दोनों में अन्तर है। चेतना-सहित योनि को सचित्त योनि कहते हैं। जो किसी के देखने में नहीं आता, इस प्रकार के जीव के उत्पत्ति-स्थान को संवत योनि कहते हैं। जो योनि शीत स्पर्श वाली होती है, उसको शीत योनि कहते हैं। इन तीनों के जो विपरीत योनि हैं, वे अचित्त, विवृत और उष्ण कही जाती हैं। दोनों के संयोगी भाव से जो योनि होती हैं, वे इस प्रकार हैं-- सचित्त और अचित्त, संवत और विवत तथा शीत और उष्ण । सव मिलाकर ये नव प्रकार की योनि होती हैं । अन्य मत के शास्त्रों में भी योनि का वर्णन किया गया है । चौरासी लाख जीव योनि शब्द अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। जन्म और उसके भेद ___जन्म, जीवन और मरण-इन तीनों का ही अटूट सम्बन्ध है । क्योंकि जन्म होगा, तो जीवन भी अवश्य ही होगा। अल्पकालीन हो, या दीर्घकालीन जन्म है, तो जीवन भी है। यदि जीवन है, तो मरण भी अवश्यंभावी है। जीवन हो, और मरण न हो, यह तो सम्भव नहीं । मरण हो और जन्म न हो, यह भी सम्भव नहीं। जन्म है-जीवन का प्रारम्भ और मरण है-जीवन का अन्त । उदय और अस्त अनन्त गगनगामी अंशुमाली के भी होते हैं । फिर मनुष्य की क्या बात ?
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