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जीव - द्रव्य | ६१
शरीर होते हैं । पाँचों शरीर एक जीव के साथ एक साथ नहीं हो सकते हैं । क्योंकि आहारक शरीर लब्धिधर एवं पूर्वधर मुनि को ही होता है । तेजस की विशेषता
तैजस शरीर दो प्रकार का होता है - एक शरीर में ही रहकर उसे कान्ति प्रदान करने वाला । यह समस्त संसारी जीवों के शरीर से निकलकर बाहर जाने वाला । यह भी दो और अशुभ | शीतललेश्या तथा तेजोलेश्या, इसी के शीतल लेश्या शुभ परिणाम है, और तेजोलेश्या अशुभ |
आहारक शरीर की विशेषता
आहारक शरीर का स्वामी साधारण नहीं, असाधारण व्यक्ति ही हो सकता है । वह संयत हो, उसमें भी प्रमत्तसंयत हो, आहारक लब्धि धर हो और पूर्वधर भी हो । यह शरीर शुभ होता है, कभी अशुभ नहीं होता । यह शरीर विशुद्ध है, कभी अशुद्ध नहीं होता । क्योंकि आहारक लब्धि से निर्मित होता है । यह शरीर अव्याघाति होता है, बाधारहित होता है । किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती । इसका निर्माण भी शुभ एवं पवित्र उद्देश्य से किया जाता है । श्रुत में किसी प्रकार की सूक्ष्म शंका के निवारण के लिए होता है ।
होता है । दूसरा प्रकार का है - शुभ परिणाम होते हैं ।
कार्मण शरीर की विशेषता
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पाँच शरीरों में यह सबसे अन्त में हैं । अतः इसको अन्त्य भी कहते हैं । अन्ते भवम् अन्त्यम् । जो सब के बाद में होता हो, वह अन्त्य कहा जाता है । यह शरीर अन्य सब शरीरों का मूल है वेदान्त और सांख्य में इसको लिंग शरीर, कारण शरीर अथवा सूक्ष्म शरीर की संज्ञा प्रदान की है । संसार का मुख्य कारण यही है । बन्धन का कारण भी यही है । जैन दर्शन के अनुसार इसका अन्त ही संसार का अन्त है । यह कार्मण शरीर निरुपभोग है, अर्थात् उपभोग रहित है । इन्द्रियों के द्वारा उन के विषयों के ग्रहण को उपभोग कहते हैं । वह उपभोग जीव की विग्रह गति में नहीं हो पाता । अतः वह निरुपभोग होता है ।
औदारिक- वैयिक को विशेषता
औदारिक शरीर वह है, जो गर्भजन्म और संमूच्र्छन जन्म से
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