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६० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
के और नारकों के होता है । विक्रिया ऋद्धि से होने वाला वैक्रियिक शरीर इससे भिन्न है । क्योंकि वह मनुष्यों को और तिर्यंचों को होता है । यह विक्रिया तो औदारिक शरीर में होती है । शास्त्र में इसको लब्धिप्रत्यय कहा गया है । विशेष तपस्या करने से जो ऋद्धि प्राप्त होती है, उसे लब्धि कहते हैं । उसके निमित्त से होने वाला शरीर । आहारक शरीर, आहारक् लब्धिधर एवं पूर्वधर मुनि को ही होता है । सूक्ष्म तत्त्व का निर्णय करने के लिए अथवा जिन भगवान को वन्दन करने हेतु षष्ठ गुणस्थान स्थित मुनि के शरीर से जो एक हाथ भर पुतला बाहर निकलता है, वह आहारक शरीर है । तैजस शरीर वह है, जिसमें तैजस परमाणु हों । यह औदारिक आदि शरीरों में तेज अर्थात् कान्ति उत्पन्न करने वाला है । कार्मण शरीर वह है, जो कर्मों का समूह रूप है । ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों का निधि रूप । आठों कर्मों के परमाणुओं का संचय इसमें होता है । तैजस और कार्मण शरीर अनादि काल से जीव के साथ लगे हुए हैं। जब तक जीव की संसार अवस्था है, तब तक साथ ही रहेंगे !
पाँच शरीरों की विशेषता
पाँचों शरीरों में, पूर्व- पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तर-उत्तर शरीर सूक्ष्म होता है । प्रथम से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अधिक अधिक सूक्ष्म हैं । प्रथम शरीर से तृतीय शरीर तक प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुण अधिक हैं । चतुर्थ तथा पंचम शरीर अनन्त गुण अधिक हैं । आहारक शरीर से अनन्त गुण परमाणु तैजस शरीर में और तैजस शरीर की अपेक्षा अनन्त गुण परमाणु कार्मण शरीर में होते हैं । तैजस और कार्मण शरीर अप्रतिघाति हैं, बाधा रहित होते हैं । ये दोनों शरीर समग्र लोक में किसी भी मूर्त पदार्थ से न रुकते हैं और न रोके जा सकते हैं ।
तैजस और कार्मण शरीर जीव के साथ अनादिकाल में सम्बद्ध रहे हैं । यह कथन - सामान्य की अपेक्षा से है । किन्तु विशेष की अपेक्षा पहले के शरीरों का सम्बन्ध नष्ट होकर उनके स्थान में नूतन शरीरों का सम्बन्ध होता रहता है । तैजस और कार्मण -- ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं । एक जीव के एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं । जैसे कि दो हों, तो तेजस और कार्मण । तीन हों, तो तैजस, कार्मण और औदा - रिक । अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक । चार हों, तो तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक
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