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________________ जीव- द्रव्य | होने वाला आत्मा का विशिष्ट परिणमन उपयोग कहलाता है | इन्द्र ( आत्मा ) के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं । यह व्युत्पत्ति मुख्य रूप से जिस इन्द्रिय में घटित होती है, वही भावेन्द्रिय है । लब्धि इन्द्रिय आत्मा में स्वपर ज्ञान की शक्ति उत्पन्न करती है । अतएव वह भावेन्द्रिय कहलाती है । मन का लक्षण आचार्य ने मन का स्वरूप एवं लक्षण करते हुए कहा है- "सर्वार्थ ग्रहणं मनः । " जो सर्व अर्थों को ग्रहण करने वाला है, वह मन है । मन को अनिन्द्रिय और नोइन्द्रिय भी कहा गया है । सर्वार्थ ग्रहणं मनः के स्थान पर यदि सर्वार्थं मनः यह होता, तो यह लक्षण आत्मा में भी चला जाता । क्योंकि ग्रहण शब्द का ग्रहण करके यह सूचित किया गया है, कि मन करण है, आत्मा कर्ता है । अतएव उसमें इस लक्षण का प्रसंग नहीं होता । मन सभी पदार्थों को जानने में करण होता है । इन्द्रियों के समान मन भी दो प्रकार का है - द्रव्यमन और भावमन । मन रूप में परिणत हुए पुद्गल द्रव्यों को द्रव्य मन कहते हैं। मन को आवृत करने वाले कम का क्षयोपशम होना, लब्धि भाव मन है आत्मा का अर्थ ग्रहण की ओर होने वाला व्यापार उपयोग भाव मन है आचार्य ने इन्द्रियों का और मन का वहुत ही सुन्दर विश्लेषण करके विषय को स्पष्ट और सरल कर दिया है । मन की परिभाषा अत्यन्त सुन्दर है । मन का विषय क्या है इस प्रश्न का उत्तर आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने दिया था कि मन सर्वार्थग्राही है । लेकिन वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थ सूत्र में कहते है, कि "श्रुतमनिन्द्रियस्य । " अर्थात् मन का विषय श्रुत है, श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है । अथवा श्रुतज्ञान का विषयभूत पदार्थ मन का विषय है । दोनों के कथन में अन्तर है । । । शरीर के भेद संसार-दशा में जीव बिना शरीर के नहीं रह सकता है। शरीर, जीव का आधार है । सिद्ध ही बिना शरीर के रह सकते हैं, संसारी जीव नहीं रह सकते हैं । अतएव शरीर के पाँच भेद हैं- ओदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । स्थूल शरीर, जो दूसरे को रोके और दूसरे से रुक सके, उसे औदारिक शरीर कहते हैं । यह शरीर मनुष्यों के और तिर्यंचों के होता है । वैक्रियिक शरीर वह है, जो एक-अनेक, सूक्ष्म - स्थूल, हल्का भारी आदि अनेक प्रकार का किया जा सकता है । यह शरीर देवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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