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५८ | जन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
पाणि, पाद, उपस्थ और पायु । मन को भी इन्द्रिय माना है। अतः सांख्य योग में एकादश इन्द्रियों की मान्यता है । वेदान्त में मन को इन्द्रिय नहीं माना है। शेष सभी दर्शनों में मन को अन्तरंग इन्द्रिय के रूप में स्वीकृत किया गया है। वस्तुतः मन इन्द्रिय है। जैन दर्शन में पाँच कर्म इन्द्रियाँ स्वीकृत नहीं है । क्योंकि उनका समावेश शरीर में हो जाता है । पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ और मन को स्वीकार किया गया है । प्रमाण-मीमांसा
आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत प्रमाण-मीमांसा न्याय ग्रन्थ के अध्याय प्रथम और सूत्र संख्या इक्कीस से पञ्च इन्द्रियों के लक्षण, विषय और भेदों को एक ही सूत्र में बड़ी कुशलता से पिरोया गया है। इन्द्रियों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र---ये पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं । क्रम से स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द को ग्रहण करना, इनका लक्षण है । ये पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैंद्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियाँ नामकर्म के उदय से निर्मित होती हैं । भावेन्द्रियाँ इन्द्रियावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं। द्रव्य-इन्द्रिय का लक्षण
प्रमाण-मीमांसा में द्रव्य इन्द्रिय का लक्षण इस प्रकार किया है-- "द्रव्येन्द्रियं नियताकाराः पुद्गलाः ।" नियत आकार वाले पुद्गलों को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। जिनका भीतरी और बाहरी आकार एक विशेष प्रकार का हो, उन्हें नियताकार कहते हैं । जो पूरण और गलन अर्थात् मिलने और बिछुड़ने के स्वभाव वाला है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला द्रव्य पुद्गल कहा जाता है। जैसे कि श्रोत्र आदि इन्द्रियों में कर्णशष्कूली आदि जो बाहरी आकार है, और कदम्बगोलक आदि भीतरी आकार है, वह सब पुद्गल द्रव्यमय होने के कारण द्रव्येन्द्रिय है । भाव-इन्द्रिय का लक्षण
प्रमाण-मीमांसा में भाव इन्द्रिय का लक्षण इस प्रकार किया है"भावेन्द्रियं लब्ध्युपयोगौ।" लब्धि और उपयोग-ये भावेन्द्रिय हैं । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमविशेष को लब्धि कहते हैं। जिसके संनिधान से • आत्मा द्रव्येन्द्रिय की निर्वृत्ति के प्रति व्यापार करता है, उसके निमित्त से
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