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जैन दर्शन में तत्त्व वर्गीकरण | १२१
३. पुण्य
जिसके कारण से जीव, शुभ कर्म के पुद्गलों का संचय करता है, वह पुण्य होता है । जिसके उदय से जीव को सुख की अनुभूति हो, वह पुण्य कहा जाता है-पुण्य से सुख का वेदन होता है । ४. पाप
जिसके कारण से अशुभ कर्म के पुद्गलों का संचय होता है, वह पाप होता है । जिसके उदय से जीव को दुःख की अनुभूति हो, वह पाप कहा जाता है-पाप से दुःख का वेदन होता है । ५. आस्रव
जो नूतन कर्मों के बन्ध में कारणभूत होता है, जो नूतन कर्मों के प्रवाह के आने का द्वार बनता है, जिनशासन में, उसे आस्रव कहा जाता है । जो अशुभ एवं शुभ कर्मों के उपादान में हेतुभूत है, जिन भगवान् ने उसे आस्रव कहा है। ६. संवर
जिसके कारण अभिनव कर्मों के आने का द्वार बन्द हो जाता है, वह संवर होता है। आस्रव के निरोध को जिन-शासन में संवर कहा गया है। संवर से कर्मों के प्रवाह के द्वार का अवरोध हो जाता है, जिससे कर्मप्रवाह अन्दर आत्मा में प्रवेश नहीं पाता है ।
७. बन्ध
नवीन कर्मों को ग्रहण करके उनका जीव के साथ सम्बद्ध हो जाना, बन्ध है । पुरातन कर्मों के साथ नवीन कर्मों का बन्ध होता, लेकिन जीव उनसे बंध जाता है। यह बन्ध कैसे होता है ? जैसे नीर और क्षीर परस्पर मिलकर के एकमेक हो जाते हैं. वैसे ही कर्म और जीव एक दूसरे से बद्ध हो जाते हैं । इस स्थिति को जिन-शासन में विद्वानों ने बंध कहा है । बन्धनयुक्त आत्मा स्वतन्त्र नहीं रहता। ८. निर्जरा
जिस क्रिया से अथवा जिस उपाय से आत्म-प्रदेशों के साथ बद्ध कर्मदलिक अथवा कर्म परमाणु एकदेश से आत्मा से अलग हो जाता है, वह
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